भोर-संजीवन
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मेरे मन में आह्लाद का प्रवाह करो
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मेरे मन में आह्लाद का प्रवाह करो
रोम-रोम में जीवन का संचार करो।
मैं आया हूँ इस जग में या फिर भेजा गया हूँ
लेकिन सत्य है कि करोड़ों को छोड़कर यहाँ आया हूँ।
फिर जीवन मिला है अति-सुन्दर
आओ इसकी कुछ इज्जत कर लें।
जीवन को उन्नत बनाने का कुछ यत्न करो
जागो और इसमें कुछ प्राण संचारित करो।
अपने को परिवर्तित करूँ एक बेहतर स्थिति में
कैसे इसके लिए सुन्दर शब्दों का संकलन करूँ ?
कैसे कर सकूँ इसकी मैं पूजा
और कैसे निकाल पाऊँ इससे श्रेष्ठतम ?
इसको मुस्कान दूँ ताकि फैले ये चहुँ ओर
जलती मशाल बनूँ, औरों को भी प्रज्वलित करूँ
और प्रकाश हो हर ओर।
और प्रकाश हो हर ओर।
क्या मेरे कर्त्तव्य हैं, कैसे जानूँ उन्हें
क्या मैंने उनकी सारणी है बनाई ?
तभी तो होगा उन पर कार्यान्वयन और प्रयोग
परिणाम बेहतर तो उसके बाद की स्थिति है।
जी लो, जिला लो और जीवन जीवनमय बनाओ
उठाओ प्रथम स्वयं को और अन्यों को भी कुछ सिखलाओ।
कवि रविन्द्र तो मन की सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों तक जाते हैं
कुरेद कर अंतरतम को बहुत श्रेष्ठ बाहर लेकर आते हैं।
फिर क्या वह पथ जिससे कुछ सीख सकूँ
कुछ योग्य कर सकूँ और अन्तर स्वच्छ कर सकूँ।
बहुत है पदार्थ जमा वहाँ पर, आवश्यकता है सम्भालने की
पहचानने की, चिन्हित करने की, सहेजने की, संवारने की।
उपयुक्तों की, इज्जत करने की, प्रयोग में लाने की,
और जीवन सफल बनाने की।
उपयुक्तों की, इज्जत करने की, प्रयोग में लाने की,
और जीवन सफल बनाने की।
जीवन को पूर्ण जीना ही तो जीवन है
कवि होकर लिखना कवित्व की पहचान है।
मन शून्य है हृदय शून्य, और शून्य से कुछ बाहर लाना
सरस्वती की कृपा हो तो संभव है, अपने को पहचाना जाना।
तब श्रेष्ठ जनों का संग होगा और श्रेष्ठ ही बाहर आएगा
प्रयास अनवरत रहेगा, काव्य सुन्दर होता चला जाएगा।
जाओ प्रकृति में और स्पंदन अनुभव करो
जागेगी अप्रितम चेतना, जीवन काव्य सिहरन करो।
मन का भोर, तन का भोर और इस भोर में नाचे मन का मोर
इस भोर का आनंद उठाओ और जगा लो सुप्त पोर -पोर।
कलम कर में ली है तो कुछ लिख डालो ही
बहुत सुन्दर ना भी बनें, प्रयास तो कर डालो ही।
बहुत संभावनाऐं पड़ी है आगे, निराशा की कोई बात नहीं
शब्द यूँ मिलते जाऐंगे, प्रयास अपना अनथक रखो।
बहुतों ने इतिहास रचा है अपने से बाहर निकल कर
तुम भी निस्संदेह कर सकोगे, फिर चलो आगे बढ़े चलो।
सुरमय, चितवन, पावन मन-मस्तिष्क, बहि सब प्रेरणाऐं हैं
सब सामान उपलब्ध ही हैं, फिर देर किस बात की है?
चलो प्रयास करो और बाल्मीकि को अपने जगाओ
पलट लो अपने पन्ने और उठा लेखनी कुछ लिखते चले जाओ।
पुरातन में नूतन छिपा है तुम उसके पास जाओ
ढूंढों स्वयं को, गाओ स्वयं को, और चहुँ ओर मुखर हो जाओ।
सब कुछ पास है, सब अपना है, बस कमी है तो पहचानने की
कुछ कम भी है तो विकसित करो, यही राह है आगे बढ़ जाने की।
मत बैठो यूँ हाथों पर हाथ धरकर, चलते रहो यही विनम्र विनय है
सफल बनाओ खुद को, और संगियों का भी जीवन धन्य करो।
मैं चलूँ ज्ञान-पथ पर और अन्दर से महा-मानव निकालूँ
मुझे पता है वो यहीं है मेरे पास, और वह संभव हो पाएगा।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
17 अगस्त, 2014 समय 22 :59 रात्रि
(मेरी डायरी दि० 29 जनवरी, 2012 से )
मन शून्य है हृदय शून्य, और शून्य से कुछ बाहर लाना
सरस्वती की कृपा हो तो संभव है, अपने को पहचाना जाना।
तब श्रेष्ठ जनों का संग होगा और श्रेष्ठ ही बाहर आएगा
प्रयास अनवरत रहेगा, काव्य सुन्दर होता चला जाएगा।
जाओ प्रकृति में और स्पंदन अनुभव करो
जागेगी अप्रितम चेतना, जीवन काव्य सिहरन करो।
मन का भोर, तन का भोर और इस भोर में नाचे मन का मोर
इस भोर का आनंद उठाओ और जगा लो सुप्त पोर -पोर।
कलम कर में ली है तो कुछ लिख डालो ही
बहुत सुन्दर ना भी बनें, प्रयास तो कर डालो ही।
बहुत संभावनाऐं पड़ी है आगे, निराशा की कोई बात नहीं
शब्द यूँ मिलते जाऐंगे, प्रयास अपना अनथक रखो।
बहुतों ने इतिहास रचा है अपने से बाहर निकल कर
तुम भी निस्संदेह कर सकोगे, फिर चलो आगे बढ़े चलो।
सुरमय, चितवन, पावन मन-मस्तिष्क, बहि सब प्रेरणाऐं हैं
सब सामान उपलब्ध ही हैं, फिर देर किस बात की है?
चलो प्रयास करो और बाल्मीकि को अपने जगाओ
पलट लो अपने पन्ने और उठा लेखनी कुछ लिखते चले जाओ।
पुरातन में नूतन छिपा है तुम उसके पास जाओ
ढूंढों स्वयं को, गाओ स्वयं को, और चहुँ ओर मुखर हो जाओ।
सब कुछ पास है, सब अपना है, बस कमी है तो पहचानने की
कुछ कम भी है तो विकसित करो, यही राह है आगे बढ़ जाने की।
मत बैठो यूँ हाथों पर हाथ धरकर, चलते रहो यही विनम्र विनय है
सफल बनाओ खुद को, और संगियों का भी जीवन धन्य करो।
मैं चलूँ ज्ञान-पथ पर और अन्दर से महा-मानव निकालूँ
मुझे पता है वो यहीं है मेरे पास, और वह संभव हो पाएगा।
कुछ सुन्दर, अनुनय, विकसित, मधुरतम, प्रेरणा, अनुशंसा, विशाल अनुभूति, अभिराम, अभिव्यक्ति, मनोरम, सुवृति, सुखदायक, प्रयत्नशील, जिज्ञासा, प्रकृति-प्रिय, कवि-हृदय का संचार करो।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
17 अगस्त, 2014 समय 22 :59 रात्रि
(मेरी डायरी दि० 29 जनवरी, 2012 से )
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