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Sunday 31 August 2014

क्यूँ कि खोज अभी जारी है

क्यूँ कि खोज अभी जारी है 
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शान्ताकारम, विश्रामावस्था, एकांत, एक-चित्त एवं मन मननोद्यत 
अनन्त गहराईयाँ जाने का चाही, जहाँ समस्त सीमाऐं जाती मिट। 

परम शान्त तो नहीं कह सकता, अंग चलित हो ही जाते 
यत्न करता हूँ एक मुद्रा का जो निरंतरता की वाहक है। 
'स्वामी मस्तिष्क' में उल्लेखित, हम अंग-प्रत्यंगों को करें शांत 
तभी मिलेगी मन को एकाग्रता और अधिक करने की शक्ति। 

हम मन से ही तो बन सकते हैं  स्वयं-विजयी, कर्मठ
और शरीर की निश्चलता ही दे पाती है वह वातावरण। 
मैं कहाँ खोया हूँ स्व में ही, कुछ बाह्य का होश नहीं है 
क्या परम-मनन करते ज्ञानी, कुछ भी तो चिन्हित नहीं है? 

शब्द यथा ज्ञानी, मनीषी, विद्वान, भक्त, सन्त, चिंतक, आदि 
कहा गया वे बैठते ध्यान में, करने हेतु परम-अनुभूति। 
क्या है वह चिन्तन का मार्ग और कैसे उसे साधते हैं वे 
उनमें कितने हैं विश्वसनीय, सत्य में कुछ पा ही लिया है?

क्या है उन्होंने साधा और कितने वे हुए हैं सफल 
क्या सोचते हैं उस अवस्था में या यूँ ही हैं आँखें बंद?
क्या है उनके अध्याय जिनका वे करते हैं पाठ 
व अवस्था उत्तरोत्तर उर्ध्व में करते हैं चलायमान। 

कितना जुदा है अंतः जगत, बाह्य में कितने क्षुद्र हम 
कैसे हो उनमें सामंजस्य और मूल्यों वाला हो वह?
कर्कश-वाणी, माध्य-आचरण व 'यदा तुष्यते तदा खिन्नते' की स्थिति में, 
सम दर्शन तो है ही नहीं, फिर कैसे महानता का दम्भ भरते हैं?   

शायद कुछ मानव हों जो एक भाव में निर्वाह करते 
विजित कर लिया वासनाओं को और कर्मों को अपने। 
मेरा अभी तक नहीं है परिचय, ऐसी महान-आत्माओं से 
पर तावत कुछ हों जिनने स्वामित्व ग्रहण किया प्रयत्नों से। 

मन-दर्शन कैसा हो, इस एकांत का लाभ उठाऊँ 
बहुत खोखला हूँ, कुछ भी ठोस न कर पाता हूँ। 
स्थिति मात्र परिचय कराती, हम नगण्य समस्त तंत्र में 
पर अभी तो जग का भी अस्तित्व नज़र नहीं आता। 

फिर जग भी तो मुझसे जुदा नहीं है 
जैसा मैं मुर्दा हूँ, वह भी वैसा ही है। 
बस कुछ अनुभव करते वह स्थिति और बहुत परम-भ्रम में हैं 
पर मनीषी जानते सब माया है, व इस खेल में सब शामिल हैं। 

क्या यह मेरा ही चिंतन-स्वरूप, या अन्य भी भ्रमित ऐसे 
संभव है मेरा मन स्थापित हो गया, ऐसे चिंतन प्रकार में।  
और भी शायद अपने ढंग से अपने में विद्यमान होंगे 
मैं नहीं चाहता कोई तुलना, सब अपने में महारथी हैं। 

यदि उनमें कुछ गुणी भी हैं तो विदित होना चाहिए पथ 
किञ्चित मुझे लाभ ही होगा, मैं तो ज्ञान मार्ग में हूँ न। 
बस यूँ ही खाली क्षणों में यत्न, और स्व से बातें करता 
पर अंदर क्या हूँ या नहीं, इसका कुछ भी नहीं पता। 

'थोथा चना बाजे घना', क्या जग-ध्वनि ऐसी ही है 
क्या हम केवल स्वाँग करते या सचमुच में गंभीर हैं? 
यद्यपि कुछ व्यवहारों में, हम अपने को समर्पित देखते 
लेकिन प्रस्तुत क्षणों में निरा सवेंदनहीन, अपरिभाषित पाते। 

मानव-जीवन की क्या सार्थकता, सच में कुछ है ही नहीं जब 
मनीषियों की निज ढंग व्याख्या, मूल-सत्य उससे परे है पर। 
इस अनन्तता में हम निर्जीव, पत्थर से यूँ ही पड़े हैं निढ़ाल  
क्या होगा इसका प्रयोग, न उनको पता न हमको ज्ञात। 

मैं भी स्थित किंचित ध्यान में, यदि कोई इसे कह तो सके 
वे कहते परम रहस्य हैं खुलते व उन्होंने ज्ञान पा लिया है। 
या है कुछ क्षणों का भ्रम कि कुछ अनुभव कर ही लिया है 
या पहुँच जाते परम-स्थिति में, ओर-छोर निकट नहीं है।

दिवस में चलना, विचरना, कुछ अजीब व्यव्हार करते हैं हम 
हम इनको जागृत क्षण कहते पर निश्चय में तो अति कमतर। 
हम इतने लघु हैं कि ठीक से अपनी भाषा प्रयोग न कर सकते, 
लेखन-पठन, व्यायाम, मनन, संवाद, आदि में अति-मध्यम ही होते। 

कैसा अभिमान स्व-विद्वता का, जब इतने कम विकसित
अन्यों को समझें निम्न और स्व-स्थिति निम्नतर से है निम्न। 
कैसे करूँ यत्न इस मन में, यथार्थ स्थिति को जाऊँ जान
फिर वह अच्छी या बुरी, किसी से कोई नहीं शिकायत। 

फिर मनन पर आता हूँ, कौन वस्तु इस स्व में स्थित है 
क्या पथ दिखा सकती, यदि इसमें कुछ सामर्थ्य बनी है ?  
  या यह भी बाह्य की भाँति, एक मद्धम गति का वाहक ही 
और कुछ भी अपेक्षित नहीं क्योंकि यह तो है असमर्थ सी। 

मैं सुप्त अवस्था में कुछ मृत्यु का सुहृद लगता हूँ 
क्यों कुछ निद्रा पूर्ण पर, अर्ध-स्वप्नों में खो जाता हूँ ? 
और अभी तो लगता कि मैं अर्ध-चेतन ही हूँ 
या सच में अपने स्व में स्थित हूँ। 

मेरी आकांक्षाओं को तू पर लगा दे 
मुझे तू सामान्य स्वरूप से मिला दे। 
होने दे फिर वाक्-युद्ध भयंकर आज 
मैं अपनी पराकाष्ठा जानना चाहता हूँ। 

कुछ पंक्तियों से ही इस कागज का पेट नहीं भरने वाला 
इस अघड़ित प्रस्तर को सतत प्रहारों की है आवश्यकता। 
नहीं तो कैसे बनेगा ललित-मूर्त सा यह 
और स्थिति तब ही तो बनेगी कुछ बेहतर। 

कोई मुझे किसी कारीगर के पास छोड़ दे 
और उसे बता दे कि इसका कुछ बना दो। 
यह है वह निष्प्राण लकड़ी का कुन्दा, 
कुछ कर्म कर प्राण-प्रतिष्ठा फूँक दो। 

बजने दो ढफली, बजने दो नगाड़े 
यदि समर्थ है तो करूँ इसकी स्तुति। 
नहीं अगर, बेहतर बेशक दो ताने 
फिर भी भाव सुधारने का चाहिए। 

मैं यहाँ अन्वेषण हेतु करता आत्म-प्रयत्न,  
वहाँ वे भी बाह्य-गुणवत्ता लिए हैं प्रयास-रत। 
तुम उनको क्या कुछ सहायता दे सकते हो 
यदि आवश्यक हो तो माँगने में भी न हिचको। 

मेरे मन का क्या हुआ, लेकर चला था मनीषियों के चर्चें 
क्या वे भी मेरी भाँति शून्य, और कुछ कपटी हैं उनमें
या मेरे प्रयत्न में कुछ कमी है, मार्ग श्रेष्ठ है उनका 
व सीखने की आवश्यकता है, श्रेयस-आचरण हेतु। 

तूलिका यूँ चलती रहे, करने को निज-अन्वेषण 
किञ्चित भी न रुद्ध, करे समस्त दिशा-भ्रमण। 
निज-विसंगतियों से हो परिचय, दोष समस्त बाहर लाए 
 व कुछ नव अध्यायों का भी, निर्वाह करें पूरी दायित्व से। 

मैं आया, खाया और खो गया इस भूल-भलैया में 
मैं करता खोज इसकी, पर कुछ भी पता नहीं है। 
कर लाड़ली परम की अर्चना, किंचित मार्ग भी हो लब्ध  
वे होंगें अति-उल्लास के क्षण, जो चिर-प्रतीक्षित, प्रार्थित। 

क्या है मेरी परीक्षा और कौन है उपयुक्त-परीक्षक 
मेरे लिए तो सब उचित है, कुछ विकास होगा ही। 
मैं न खोऊँ नींद में ही, कुछ सार्थक संवाद कर लूँ 
जानूँ स्व को और अन्यों से भी ऐसी आशा कर लूँ। 

आऊँगा फिर जल्द ही एक नए मनन-अध्याय संग 
फिर देखूँगा कितना और शून्य छुपा है मुझमें मर्म। 

पवन कुमार,
31 अगस्त, 2014 समय 00:04 म० रा०   
(मेरी डायरी दि० 31.05.2014 समय 12:58 अपराह्न से )


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