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Friday, 4 April 2014

मंज़िल


मंज़िल 


मस्तिष्क भारी, पर इसका आंदोलन तो है जारी

जीवन-सार्थकता के लिए ही, मेहनत है ये सारी॥

 

यद्यपि व्यस्त रहता, चाहे पूरा परिणाम न निकले

जीवन नाम सिर्फ गति, चाहे क्यों न प्राण निकले॥

 

गर्मी-बेहाली, ऊपर से बिजली-गुल जान सुखाती

पर बाधाऐं होती कर्मों में, हमें तो मंजिल दिखे ही॥

 

पर 'मंज़िल' क्या नाम है, प्रश्न यही बड़ा विशाल

उसी हेतु ही तो हुआ, जीवन का यह तंग हाल॥


पवन कुमार,
4 अप्रैल, 2014 समय 00:13 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 8 जुलाई, 1998 से ) 

Wednesday, 2 April 2014

गुजरता वक्त

गुजरता वक्त 


यह वर्ष समाप्ति पर आ गया है,  तैयारी विदाई कहने की

नववर्ष आगमन-खुशियाँ, प्रेरित करती हैं गत भुलाने की॥

 

शुरू हुई एक निमंत्रण-ऋतु, चाहे हो क्रिसमस या नववर्ष

चलो तब बाँटें खुशियाँ,  कहें हरेक को नववर्ष मंगलमय॥

वर्ष बीता गया मात्र छह दिन शेष,  क्या वृतांत किया मनन

क्या बस मन-विस्मृत, या कर लोगे किसी पृष्ठ पर अंकन॥

 

सफ़र तो छोटा न जिंदगी का, जरुरत बस अनुभव करना

निज को परिभाषा देना, और सर्व जगत को ही समझना॥

कितना औरों को बनाते शिक्षित, व खुद शिक्षार्थी कितना

फिर 'शिक्षा' के क्या मायने, और क्या अपनाते हो दीक्षा॥

 

आया था प्रथम जनवरी को, बीत गया है यूँ जैसे हो ही कल

किंतु गर्भ में छिपा ले गया,  अनंत इतिहास को बना अंश॥

 

भारत-सरकार बदली, वाजपायी आए गुजराल साहब बाद

प्रबल ही थी जनाकांक्षा, अलग पार्टी बनी है विधाता-भाग्य॥

आते ही झटके आरंभ, १३ पार्टियों की साँझी वैसे भी कठिन

पोखरण-२ अणु-परीक्षण, १९७४ बाद जगी महत्त्वाकांक्षा तब॥

 

विश्व-शोर तब पाक भी क्षेत्र में, किए परीक्षण व शुरू प्रतिबंध

दोनों निर्धन पर युद्ध अणु-बम स्तर, क्या होगा, सोचा है कब?

तुम्हारे नर भूखें कृपया दो निवाला, अशिक्षित हैं दो शिक्षा-बम

यह स्व-नष्टन की सोच, क्या मिला ५० वर्षों की लड़ाई में गत॥

आओ करो मेल, अभी समय, माफ़ न करेगा इतिहास वरन॥

 


पवन कुमार 
2 अप्रैल, 2014 समय 20:26 सायं 
( मेरी डायरी 25 दिसम्बर,1998 से )

Saturday, 29 March 2014

पकड़ जीवन की


पकड़ जीवन की 


समझो, समझो, समझो, समझो कुछ तो मेरे भाई

कैसा होगा ऐसे ही सब, जब नहीं की कोई कमाई?

 

एक-२ पल देखो, तुमने उत्तम ढ़ंग से है ही बिताना

पर खो दोगे उसको तो फिर, क्या होगी ही कमाई?

जीवन तो बीतता जा रहा है, अपनी त्वरित गति से

क्या पकड़ने की भी कोशिश, करके तुमने दिखाई?

 

क्या पुस्तकें ही खुद में तुम, पढ़ते सदैव रहते हो

क्या उनसे तुममें भी, कुछ समझ ही आया भाई?

उन्नति इतनी भी न आसान, जितना तुम समझे हो

खपना पड़ता निश-दिन, नहीं चलते किले हवाई॥

 

बीमार मन के स्वामी हो, तो है अति विषाद स्थिति

स्वस्थ करो तन-मन, चाहे पीनी ही पड़े कटु दवाई।

समय तेरा, तुम समय के, ऐसा सामंजस्य बना लो

कालातीत हो तुम, ताकि रह न जाये कोई कहाई॥

 

बहुत विकट है जीवन, इसको थोड़ा सरल बना लो

कटे पापों से फंदा इसका, और रहने सको रिहाई।

कुछ अहसान खुद पर भी, कर जा अपने चलन से

स्वयं को निज अनुरूप बना जा, ओ मेरे प्रिय भाई॥



पवन कुमार, 
29 मार्च, 2014 समय 10 :50 प्रातः 
(मेरी शिलौंग डायरी 11 जनवरी, 2000 से )

Friday, 28 March 2014

कुछ कामना


कुछ कामना 


मध्य-रात्रि का समय है, निस्तब्धता का आलम है, व आँखें उनींदी हैं। कमरा ऊष्म रखने हेतु चल रहे ब्लोअर का शोर है। शायद अन्य दिन होता तो सो जाता लेकिन मन ने कहा कि डायरी उठाओ और कुछ लिखो। लिखूँ क्या, यह तो नहीं जानता लेकिन शायद जो लिखता हूँ क्या वह पूर्व-लिखित दुहराने जैसा ही तो नहीं होता? अगर होता भी तो क्या, दुहराने से स्मृति और परिपक्व हो जाती है। अतः बुद्धि लगाओ कुछ अच्छी बातें करने में। अगर नया हो तो सर्वोत्तम, अन्यथा कुछ पुराना-स्मरण ही करो क्योंकि यह लेखन ही तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने का साधन बनेगा।

 

मैं स्व-लुप्त हूँ नर, निज राह ढूँढ़ता थोड़ा सा विचलित॥

 

भ्रमित क्योंकि राह न जानता, दुःखित क्योंकि हूँ भ्रमित

फिर क्या विश्रांति-उपाय, मनन तो राहत मिले किंचित॥

 

नववर्ष है आया पर न वार्ता, या अनेकों को ही शुभाकांक्षा

अन्य-संग हर्षित, सत्यानंद, पर सर्वार्थ व महत्तर कामना॥

 

पर क्या कामना से ही सर्वोत्तम, निश्चय से तो पूर्ण तरह न

मंशा निश्चित भली, बस जरुरी है जग-सुंदर निर्माण-यत्न॥

 

वर्तमान में क्या कर रहा, या बस सरकार से वेतन पा रहा

या परिवेश-भोजन बन गया, या और भी दूषित कर रहा॥

 

आत्म-मुग्ध उत्तम दशा न, यत्न अन्यों को भी प्रसन्न बनाना

यदि बस यूँ खुद में डूबा, तो ज़माने में मेरी क्या सार्थकता?

 

प्रश्न महद, उत्तर चाहिए। करो विचार, पर अब सोना चाहिए॥



पवन कुमार, 
28 मार्च, 2014 समय 10 :44 रात्रि 
(मेरी डायरी शिलौंग 8  जनवरी, 2000 समय 12 :45  मध्य रात्रि से)

Thursday, 27 March 2014

मेरी चाह

मेरी चाह 



जीवन तो अति विशाल है, लघु क्यों है बना फिर

स्मृतियाँ अनेक मन में हैं, कलम क्यों शांत तब?

 

अन्याय इतना चहुँ ओर व्याप्त, फिर मैं खामोश हूँ

अंधकार अत्यंत गहन है, और मैं ज्योति में ही रहूँ।

कितने ही जीवन कष्ट में हैं, और मैं बड़ा सुखी बनूँ

अनेक तो बेचारे अपढ़ हैं, मैं खुद को विद्वान कहूँ॥

 

अनेक सिकुड़े पेट भूखे हैं, और भोजन व्यर्थ करूँ

कितने ही तन नग्न हैं, व मैं वस्त्र-अपव्यय करूँ।

कितनी ही विभीषिकाऐं जीवन में, व मैं हूँ चुपचाप

न कोई स्पंदन-अहसास ही, बस मुर्दा हूँ शायद॥

 

इस एक मुर्दे शहर में, मैं हूँ शायद अधिक ही मृत

वरन क्या खड़ा न होता, मिटाने जगत के ही दर्द।

क्या कहूँगा खुद को, मैंने भी कोई जीवन है जीया

 या यूँ ही समय को गँवाया, और बालों को पकाया॥

 

क्या उत्तर दोगे भावी- पीढ़ियों को, कुछ न किया

झूठ दूजों से कुछ बोल दोगे, कि प्रयास है किया।

लेकिन स्वयं को कैसे कह सकोगे, वे विषाण शब्द

क्योंकि खुद की सत्यता तो, भली जानते हो स्वयं॥

 

साधन-अभाव हैं, पर क्या कोशिश खोजने की हल

चहुँ ओर के मनुजों में, गुणवत्ता फूँकने का है यत्न।

या स्वयं को, बुद्ध अनुरूप तपस्या-साँचे में है ढ़ाला

या फिर जीवन से, कुछ निष्कर्ष का कष्ट है किया॥

 

जब सकल जग प्रगति-पथ पर है, क्यों रहोगे पश्चग

'सापेक्ष गति' है एक भाव, समझो तो कितना अंतर।

फिर क्या होगी ही तेरी दशा, मुकाबला भी बली से

ये प्रजा-जन तो तुम्हें, उसके योग्य भी न समझेंगे?

 

हमारा भारत देश महान है, लोग न थकते गाते यश

पूर्वज-ज्ञान व निज सभ्यता-चर्चे, कुछ हेतु हैं राहत।

वह शायद विश्व की प्रथम एक, विकसित है सभ्यता

लेकिन उसी महान राष्ट्र को, आज क्या हो है गया?

 

इसके अंदर-बाह्य अनेक दोष तो, जानते हैं विद्वान

और कुछ कारणों का तो, मुझे स्वयं भी थोड़ा ज्ञान।

अनिवार्य है वर्तमान-भविष्य पर, चाहिए नजर होनी

कब तक यूँ गर्व करोगे, फिर मात्र भूतकाल पर ही?

 

बहुत दोष लिप्त हैं निकृति-अकर्मण्यता-अत्याचार,

तंद्रा-असमता के, फिर कैसे अपेक्षित राष्ट्र-उध्दार?

क्यों आज भी बहुजन, सवैंधानिक अधिकार-वंचित

व अत्याचार-पीड़ित, कभी तो प्रतीत शासन-मूक॥

 

किस-२ नाम से अत्याचार व विभेद होगा, लोगों पर

कब तक नकारोगे बुद्धिमता-योग्यता और परिश्रम?

शंबूक-एकलव्य-कर्ण इत्यादि, अनेक ही उदाहरण

जिनको ठगा गया है, बिना बात के बहाने बनाकर॥

 

आज भी बहु-विषमता व्यापक, जाति-धर्म नाम पर

क्यों लोग दोषार्पण करते, अतीव कृत्रिम मुद्दों पर?

प्रश्न यह न कि कुछ का, योग्य-बुद्धिमान होना अति

बल्कि कैसे शीघ्र सबको ही मिले, सम्मानित स्थिति?

 

जब साध्य सकल मनुजता, होगा तेरा विवेक साधन

सर्वत्र समृद्धि होगी, जन्में गांधी-सुभाष-भीम-वल्ल्भ।

सबको प्रगति-अधिकार, अनुभूति लोगों को दिलानी

श्रद्धा मन में जगानी, बावजूद अवरोध प्रगति करनी॥

 

अतः स्व-अंतः में झाँकने की एक प्रवृत्ति है ही डालनी

व्यर्थ संवाद-विवाद, अन्य-बुराई में शक्ति नहीं गँवानी।

 

तब कह सकोगे, सार्थक-निर्वाह की मैंने कोशिश की

जीवन-लक्ष्य अन्वेषण में भी, होगे फिर सफल-अति।



पवन कुमार, 
27 मार्च, 2014 समय 00:03 मध्य रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 25.09.1999 समय 1:35 मध्य रात्रि  से )   

Sunday, 23 March 2014

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत 


सुहृद राजीव ने कहा, शब्दों में है बड़ी जान

कहो कि चंगे हैं, न कि बस समय रहें काट॥

 

शब्द शायद हमारी मनोदशा का प्रतीक होते

जब ये कमजोर तो, हम भी निर्बल पड़ जाते।

अतः वचन सदा, शक्त-प्रेरक-आशावान बोलो

ताकि जीवन के प्रति भाव सकारात्मक ही हो॥

 

जब निज मान होगा, तब निकले उत्तम ध्वनि

फिर सदा अहसास रहेगा, इंसान हैं हम भी।

तुम क्यों अकारण दिल निज, लघु ही करते हो

एक सफल नर सम, सीधा खड़ा होना सीखो॥

 

जीवन में न कोई बड़ा होता, और न छोटा ही

स्वयं की सोच-गणना ही, उस श्रेणी में रखती।

अतः सु-उपायों से शक्य-तेजस्वी बना निज को

सदा उचित-सार्थक शब्द ही, इस्तेमाल करो॥

 

झुक कर चलने से तो, कमर पूरी ही झुक जाती

अतः नित सीधा खड़ा होने की, आवश्यकता ही।

दुनिया तो साथ देती है, सदा आशावानों का ही

निराशावादियों को तो मिलती, बस हमदर्दी ही॥

 

अतः क्यूँ न खड़ा हो, अचूक-साफल्य इच्छा रखें॥



 पवन कुमार,
23  मार्च, 2014 समय 11:09 रात्रि 
(मेरी डायरी दि०  23.07.1999 समय 11:48 रात्रि ) 

Saturday, 22 March 2014

दर्शन

दर्शन 


मेरी इन चक्षुओं से तू, अज्ञान का पर्दा हटा दे

और मुझको निज सच्चिदानंद-स्वरुप दिखा दे॥

 

इस सुख-दुःख के दौर में तो, जीवन यूँ कटता

मैं तो कदापि ना, स्व को ही कुछ समझ पाया।

यदा-कदा यत्न भी किया तब अंतर्मुखी होने का

किंतु बस सतही धरातल पर घिसरते ही पाया॥

 

मैं नहीं जानता, कितना है मेरा यह हृदय गहरा

बस इतना कहूँ, ऊपर बस जल समतल पाता।

विशालता या कहूँ लघुता, इनका नहीं ज्ञान मुझे

फिर जीवन कैसे चलता, यही बड़ा आश्चर्य है॥

 

मेरी अत्यल्प ही होती, स्व-विषयों में उत्सुकता

बाह्य-अध्यायों में ही यूँ, समय व्यर्थ सा बीतता।

निज सीमाओं का न ध्यान, न बनी कोई सारणी

न सोचा उत्तम लक्ष्य, न लक्ष्मण- रेखा ही बनी॥

 

क्या यहाँ थाह बूते की, और क्या थाती है फिर

या यूँ इतराता मात्र बुलबुलों सा ही क्षण-भंगुर।

न जानता कितने समय का, जीवन-जग में इस

व दीर्घ यापन-काल पश्चात, ग्रास बनता एक॥

 

मैं इस समस्त प्रक्रिया में कितना हुआ हूँ प्रगाढ़

कितना मैंने स्वयं को ही किया है शक्ति-संपन्न।

शौर्य या कहो क्षीणता, इनका नहीं मुझको भान

शायद पड़ा पत्थर सा धरातल पर बने हुए भार॥

 

एक अंजान पीड़ा का, कभी-२ होता है अहसास

और नहीं समझ पाता कि क्या है इसका कयास?

तब अतीव निकृष्ट-हताशा की सी अनुभूति होती

अंजान कि क्यूँ न मुझमें, स्पंदन न होता है कोई॥

 

एक सद्चित-अमिताभ स्वरुप रोशनी में भी तेरी

क्यूँ मुझ एक अनेत्र-पथिक को राह है न मिलती?

देखने को तो शायद, तूने दिए हैं उपकरण सभी

लेकिन मुझ दुर्मति को प्रयोग न आता करना भी॥

 

जीवन-उत्कृष्टता फिर क्या, और कैसे है मिलती

क्या निकट हैं कोई विधियाँ, जो काज हैं बनाती।

शायद ऐसे अनेक उपाय, प्रयोग करते हैं महानर

तभी तो कुछ ने असीम प्रतिभा करी है विकसित॥

 

तेरी शीतल तरु-छाँव का हूँ, एक मैं क्षुद्र-ग्राहक

पथिक जो अपने गंतव्य से भटक सा गया बहुत।

प्रार्थना कुछ राहत पहुँचा, फिर गति-प्रेरणा तू दे

व इस जग-प्रक्रिया में, कुछ कला-अदाकारी दे॥

 

प्रदत्त जीवन में, जीवंतता का अहसास तू भर दे

और अपना कुछ तो असीमता-अंश ही दिखा दे।

मेरी अपनी यदि आँखें हैं, उनको खोल तो जरा

अगर न भी तो, किसी भाँति आत्म-मिलन करा॥

 

इस क्षुद्र बीज को भी तू, एक तरु-पादप बना दे

जल-ऊष्मा व ध्यान से, मुझे भी विराट बना दे।

फिर मैं शायद तुम्हारा ही लघु स्वरुप बन जाऊँ

और तेरी प्रगति-राहों में नित चलता ही जाऊँ॥



पवन कुमार ,
21  मार्च 2014 समय 11:50 बजे म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 19 जनवरी, 2002 से )