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Saturday, 7 February 2015

ऋतु - संहारम : ग्रीष्म

ऋतु - संहारम 
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सर्ग-१ : ग्रीष्म 
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भास्कर प्रचण्ड चमक रहा, शीतल चन्द्र हेतु है उत्कण्ठा

स्वागत है गहरे जल का, लगाने हेतु बारम्बार गोता। 

दिवस शांत सौंदर्य में खिंच रहें, कामना - ज्वार का

उफान कम है, झुलसती गर्मी अब है यहाँ,

ओ मेरी प्रिया !१।  

 

निशा को नीलिमा-चीर पहनाया शशि ने, नीर में

प्रासाद की छाया अद्भुत, जल-यन्त्रों से शीतल। 

विभिन्न मणि लगे स्पर्श में सरस, चन्दन तरल, इस

गर्मी की चिलचिलाती दाह से मुक्ति चाहता सारा जग,

ओ मेरी दुलारी !२।  

 

 हर्म्य-ताल सुवासित हैं, इन्द्रियों को लुभाती   

प्रिया के उच्छ्वास से मदिरा है हिल रही। 

रसीले तराने मधुर तानों पर सुतंत्रि* की,

कामी प्रेमी इन मदहोशिनी युक्तियों का

लेते आनन्दमध्य रात्रियों में ग्रीष्म की,

ओ मेरी चहेती !३। 

 

सुतंत्रि* : वीणा  

 

महीन रेशम व आभूषित मेखला, नितम्ब-सौंदर्य बढ़ाते,

मोती-कण्ठहारों से स्पर्श स्तन, चन्दन से महकते।  

सुगन्धित जल से धोऐ सुवासित उनके केश-जूड़े,  

इन्हीं संग कामिनियाँ रिझाती साजनों को अपने,

ओ मेरी महबूबा !४।  

 

बल खाती कमर, चरण रंजित हैं गहरे लाक्षारस से,

पायल नूपुर हर पग पर हंस-नाद की नक़ल करते।

पुरुष - हृदय तो मदाग्नि में जा रहे हैं जले।५।  

 

पयोधर* आर्द्र चन्दन से कोमल लेपे गए हैं, जो

अश्रु विन्दुओं से चमकते हार-शेखरों से भरे हैं। 

नितम्ब हेम*-मेखलाओं से घिरे हैं,

किसका उर न उत्सुक होगा ऐसे में?,

ओ मेरी सजनी !६।

 

पयोधर* :  स्तन; हेम* : स्वर्ण 

 

यौवन-भरपूर उच्च वक्ष कूचा*-यौवनाऐं,

जिनके अंग चमकते स्वेद-मनकों से। 

भारी परिधान उतार फेंकती व महीन अंशुक

पहन लेती, इस ग्रीष्म में वक्षों को ढँकने।७।

 

कूचा* : गली 

 

चन्दन जल सुवासित चँवरों की अनिल, 

प्रियतमा-क्ष पर पुष्प-माला का स्पर्श। 

वल्लकी* की अत्युत्तम मर्मर-ध्वनि, 

निद्रा से जगाती हैं ये सब अब, 

ओ दुलारी !८। 


वल्लकी* : वीणा 


समस्त रात्रि उत्कंठा से सुप्त, प्रसन्न, 

मंजुल-योषिताओं के मुख चिरकाल तक निहारता। 

संगमरमरी-महल छतों से, उषा होने पर वह चन्द्र,

अपराधी सा लज्जा से पाण्डु* हुआ है जाता।९।


पाण्डु* : पीला   


विरहाग्नि में मानस* जल रहे,

कांता-वियोग देखने में हैं प्रवासी असमर्थ। 

रेणु मण्डल* भवंडर में, धरा से उछलते ऊपर, 

सूर्य के भीषण ताप से होते संतापित।१०। 


मानस* : हृदय; रेणु मण्डल* : धूल के बादल  


 ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप से वनचर मृग हैं त्रस्त,

गगन को मुख किए दौड़ लगाते तृषा-ग्रस्त। 

जिसका वर्ण जैसे सुघड़ मिश्रित काजल,

   सोचते कि वहाँ अन्य वन में है जल।११।  


जैसे विस्मयी रश्मियाँ राकेश* से हैं आभूषित,

ऐसे ही कामुक नारियों की चाल मतवाली। 

 उनकी मोहक मुस्कान एवं कटाक्ष नज़रें,

        प्रेमी-दीवानों में एकदम कामुकता जगाती।१२।  


 राकेश* : शशि; 


रवि की उग्र मयूखों* से संतापित, अपने

तपते धूसर पथ पर, एक फणी झुकाए फन। 

पीड़क मार्ग पर रेंगता, पुनः -२ फ़ुफ़कारता, 

एक मयूर की छाया में लेता है शरण।१३। 


मयूख* : किरण

 

जन्तु-अधिपति मृगेश्वर* अति-तृषा से तड़प रहा,

चौड़े खुले मुख हाँफ रहा, जिह्वा लटकाए,

उसके अग्र-केसर स्पन्दित।

हत-विक्रम सा वह नहीं मारता गजों को, जबकि

वे उसकी सीमा से दूर नहीं हैं अधिक। १४। 

 

मृगेश्वर*: सिंह 

 

शुष्क कंठ, मुख पर फेन,

भानु की झुलसाती रेणुओं से आहत हुए जाते हैं।

प्रवृद्ध प्यास - कष्ट से दन्ती* तुषार-जल ढूँढ़ते हैं,

और सिंह से भी न भयभीत होते हैं।१५।

 

दन्ती* : हस्ती

 

रवि की हुताग्नि से क्लांत एक कलापी*

जैसे असंख्य यज्ञाग्नियों से धधकता।

कोई इच्छा न फणित सर्पों पर आक्रमण करने की,

अपने कलाप*-चक्र में आनन* लेता है छिपा।१६।

 

कलापी* : मयूर; कलाप* : पंख; आनन* : मुख   

 

उष्ण दिवाकर मयूखों* से उत्पीड़ित वनैले

वराह*- यूथ, लम्बे थूथनों के गोल सिरों से अपने।

 तालों की दलदली घास एवं शुष्क मृदा को उखाड़ते,

ऐसे लगते कि मानो भूमि में चले गए हैं गहरे।१७।

 

मयूख* : किरण; वराह* : शूकर

 

प्रभाकर की प्रचण्ड किरणों के सेहरे से झुलसा,

एक भेक* पंकिल* ताल में छलाँग लगाता है।

एक विषैले भुजङ्ग के पत्र*-छत्र के नीचे आ

       बैठ जाता, जो पहले से ही मान्दित-प्यासा है।१८।

 

भेक* : मेंक; पंकिल* : कीचड़; पत्र* : फन

 

एक मृदु पंकज पादपों का बड़ा भाग उखड़ा पड़ा है,

मीन मृत पड़ी हैं, सारस भय से दूर उड़े जा रहे हैं।

झील एक मोटी दलदल में बदल गई है,

       एक बड़े हस्ती-दल द्वारा धकेलते - रेलते।१९।

 

एक कृष्ण-सर्प तृष्णा - बाणों से घायल,

अपनी द्वि-जिह्वा बाहर निकाले मरुत चाटने लगता।

मस्तक-मणि कान्ति, दीप्ततर भानु-रश्मियों से टकराती,

ग्रीष्म-ताप से जलता, अपने ही उफनते विष से आकुल,

वह दादुरों* के जमघट पर नहीं करता हमला।२०।

 

दादुर* : मेंढक

 

एक महिषी - यूथ दीर्घ तृषा से क्रोधित,

 सिर उठाए पहाड़ी-गुफाओं से निकलता है।

वायु में अम्बु निरीक्षण करता, गुहामय जबड़ों से फेन बाहर आता,

    लटकती गुलाबी जिह्वाओं से, उनके होंठों से झाग निकल रहा है।२१।

 

एक दावाग्नि नाजुक शाखाऐं भस्म कर देती,

सूखे पत्तों को निर्दयी पवन ले जाती तीव्र वेग से ऊपर।

सर्वत्र जल-स्रोत सूखकर निम्न स्तर पर आ गए इस दग्ध अग्नि में,

अरे, वनों की सरहदों पर यह कैसा वीभत्स दृश्य है प्रस्तुत!।२२।

 

हाँफते नभचर पल्लव विहीन वृक्षों पर बैठे हैं,

कृष कपि झाड़ियों से की गुफाओं में टोली बना लेते हैं।

जब जंगली वृषभ नीर की तलाश में फिरते मारे-२, फिर

   सावधानी करते गज-शावक सूंड से कूप-जल पी लेते हैं।२३।

 

हिंसक पवन - बल द्वारा निष्ठुरता से धकेले,

अग्नि चमकती जैसे खिलते गुलाब के चमकीले सिंदूरी पल्लव।

हर दिशा में उड़ती फिरती, बावरी सी सबको आलिंगन करें,

   तरु-शिखाओं को, विटप-लताओं को, व करे भू को ज्वलन।२४।

 

अरण्यों के आंचलों में उछाल लगाती

अनल की जलजलाहट वन-जंतुओं को मान्दित कर देती है।

यह अनिल-पंखों से घाटियों को भभका देती, चिटकाती है,

और सूखे बाँस की झाड़ियों में विस्फोट सा करती है,

     प्रतिक्षण वृद्धि करते घास में विस्तारित हो जाती है।२५।

 

पवनोत्तेजित वनाग्नि अरण्य में सर्वत्र स्वछंद विचरती,

सेमल के कुंजों में चमकती अनेक रूप लिए है।

यह तड़कती-भकड़ती, सुवर्ण सी चमकती, खोखले तरुओं में,

   ऊँचे दरख्तों पर कूद लगाती, झुलसते पल्लव-शाखाओं में।२६।

 

अग्नि की प्रचण्ड ऊष्मा से दग्ध काया को लिए,

अपनी शत्रुता भूल जाते हैं हस्ती, सांड, सिंह सब।

झुलसे चरागाहों से शीघ्र बाहर निकलते हैं, इकट्ठे - मित्रवत,

किञ्चित विश्राम पाने हेतु नदी के चौड़े रेतीले तीरों पर।२७।

 

ओ मेरी रमणी!

किसका गायन इतना सुरीला है, रात्रि में चाँदनी नहाई छतों पर,

मनहर कामिनियों द्वारा ग्रीष्म गुजरने की प्रतीक्षा होती।

जब तालें कमल-पूरित होंगी, पाताल-पुष्पों से सुवासित समीर।

सुहाना जल मिलेगा जब सुस्ताने को, मुक्ताहार स्पर्श में शीतल,

इसे बड़ी प्रसन्नता से बीत जाने दो, तुम्हें मिलेगा सुकून।२८।

 

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-१ : ग्रीष्म 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

७ फरवरी, २०१५ समय २१:१८ रात्रि 

(रचना काल १४.०१.२०१५ समय ०९:२८ प्रातः) 


Friday, 23 January 2015

मन का बली

मन का बली 


बहुत एकाकी क्षण मेरे, किंकर्त्तव्य-विमूढ़ क्या ही करूँ

सोकर बिताऊँ, मनन में लाऊँ या सार्थक चित्रित करूँ?

 

समय ने फिर करवट सी बदली, एकांत में धकेल दिया

पुनः कठोर झझकोरा या कहूँ, एक अन्य अवसर दिया।

निकाल निज सर्वोत्तम बाहर, जग प्रति किञ्चित समर्पित

 बना स्व को कुछ योग्य, भावी पल हो पूर्ण जीवन-परक॥

 

स्व-निर्माण एक प्रक्रिया है, गुणवत्ता तो हर पक्ष में वाँछित

यह है भवन या अन्य निर्माण जैसा, हर पहलू महत्त्वपूर्ण।

नहीं छोड़ा जा सकता है यह, अनाड़ी-नौसिखियों के हाथ

समस्त प्रबंधन-बिंदुओं का, अत्यावश्यक यहाँ योगदान॥

 

कुछ उम्र-वर्ष बिताए हैं, कुछ यूँ ही इधर-उधर से जोड़ा

न सोचा पर घड़ता चला गया, अज्ञात हूँ योग्य है कितना?

प्राचीन नृप-होनहार सज्ज किए जाते थे, एक विधि-तहत

प्रत्येक क्षेत्र विज्ञान-पारंगतता, एक निर्माण करती समर्थ॥

 

बनें अभूतपूर्ण तन-मन भर्ता, कुछ करने का आया हुनर

सम्भालते अपने काज सुयत्न से, व करते श्रेष्ठ कर्म-मनन।

विज्ञ नृप अनुपम लाभ, प्रखर-बुद्धि उचित निर्णय कराती

मात्र न दुर्बलता-पुतले, अपितु नर सबल निर्माण करती॥

 

रचित हूँ अल्प-सामग्री से मैं, न परिवेश अति-समृद्ध पाया

जो मिला, काटा-छाँटा, गलत-ठीक से स्वयं को है बनाया।

प्रायः क्षणों में नहीं श्रेष्ठ निर्णायक, तो भी हूँ एक बुद्धि-उपज

उसी की सम्यक है बनाया, सकल अग्रिम कर्मों का प्रेरक॥

शोभित-सुयोग्य, जितेन्द्रिय, स्वयं-सिद्धा, सब हैं स्व-निर्मित

उन्मुक्त-भाव, निर्मल-निर्भय, अति-सूक्ष्मता, शनै हैं युजित।

अनंत मन-प्रवाह, चक्षु-तीक्ष्ण, निज सब दोष-गुण हैं खोजते

मन के बली फिर बनें प्रहरी, प्रत्येक स्व-दोष दूर हैं करते॥

 

जो भी दत्त हैं जग-कर्त्तव्य, सुभीता ज्ञान उनका होता उन्हें

कदापि न शंका स्व-क्षमता पर, निर्भयता से बात हैं कहते।

पल-२ विवेक-संगी दुर्धर, प्रतिबद्धता पर न कोई चिन्ह-प्रश्न

जहाँ देखे, वहीं अवसर, उनकी उपस्थिति देती विश्वास एक॥

 

ज्ञान-वाहक, उद्यमी, साहस-पुँज, असीमता में नज़र गड़ाते

न जो महज बाह्य-दर्शित से, अपितु अपरिमिता के संगी हैं।

जीवन-दर्शन माना गूढ़ है, अति-सूक्ष्म, उनको हर अंश-ज्ञान

चलें सदैव उच्च लक्ष्य-पूर्ति को, न करते हैं कोई गर्व-प्रमाद॥

 

वे हैं एक अनन्त प्रवाह-साथी, हर क्षण चैतन्य का होता फिर

विशेष-अनुभव करने में सक्षम, सकल भूत-वर्तमान-भविष्य।

चिंतन है अति पवित्र-सार्वभौम, उन्नायक व यथार्थ- समर्थक

एक विश्वास सुधरने-सुधारने में, विद्या-ग्रहण में होते प्रशिक्षु॥

 

मैं भी कुछ ऐसे समर्थों सा बनूँ, यह विश्वास मन में लिया धर

प्रयोग कर अद्यतन अनुपम क्षण, निज और घड़ूँगा बेहतर।

हर पल का हो यहाँ पूर्ण-उपयोग, रचनाऐं बहुत हों सार्थक

श्रेष्ठ पुस्तकें बनें सुहृद यहाँ, तन-मन तो करूँ पूर्ण-स्वस्थ॥

 

एक विद्वान पद निजार्थ बना, क्या संभव उपाधि- योग भी

क्या कुछ विज्ञ-श्रेणी में आगमन, स्थली निज बना सकती?

करूँ कुछ बेहतर अपेक्षाऐं, और फिर यत्न पाने का करूँ

एक सार्थक-रचना का अनुपम अवसर, आत्मसात करूँ॥


पवन कुमार,
23 जनवरी, 2015 मध्य रात्रि 00:25 बजे 
(मेरी डायरी दि० 16 सितम्बर, 2014 समय 8:40 बजे से )    

Wednesday, 14 January 2015

प्रातः मनन

प्रातः मनन 


ब्रह्म-महूर्त वेला, एकाकी समय और साथ है लेखनी का

अनुकूल पल सार्थक करने को, आओ इन्हें बनाऐं अपना॥

 

इन शुभ-प्रहरों में ही, ऋषि-मुनियों ने किए काव्य- मनन

सोचा उन्होंने अत्युत्तम-नवीन, जो हुए वाणी द्वारा प्रकट।

निर्लेप न पूर्वाग्रहों का, कोरी स्लेट सी रिक्तता-पूर्ति बस

जो चाहो लिखो-उकेरो, निरी-शून्यता से निकलो बाहर॥

 

एक-२ अक्षर से ग्रन्थ बनें, पर आवश्यक है गतिशीलता

एक उचित अवसर का मिलन, उसको अग्रसर बढ़ाता।

दिवस में हम व्यस्त हो जाते, स्व हेतु न उपलब्ध समय

कृत्य जो अनुपम कर सकते हैं, उनसे न होता सम्पर्क॥

 

जब खुलेंगे तव अन्तर्चक्षु, अनुभूत शंकर का तृतीय नेत्र

सर्व बाधा-संकोच मिट जाऐं, जब स्वत्व से होगा मिलन।

जब सब विकार-रसों का, प्रसर रहेगा अल्प सीमा तक

विभूति-समृद्धि अंतर की, लुब्ध-कुप्रवृत्तियाँ रखेगी दूर॥

 

जन्म यह नव-प्रभात में, पूरा दिवस इसका जीवन-क्षेत्र

जागृत सुप्तावस्था मध्य ही, सकल कार्य-क्षेत्र उपलब्ध।

प्रतिपल जीवन का यदि, कुछ जीवनोन्मादन किया जाए

निज उन्मुक्तता-अभिभूति, इस काल-कर्म में हो जाए॥

 

हर एक पल का अर्थ यहाँ, यदि गूढ़-तत्व में करें मनन

उनमें बसी महद संभावना, यदि स्थापित हो मन-कर्म।

जीवन को उच्चता मिलेगी, निकास संभव दुर्बलताओं से

मनोकामित है घटित सम्भव, आवश्यक श्रम-विवेक है॥

 

प्रकृति में महान शब्द उपलब्ध, उनका अर्थ तो न ज्ञात

अविवेकता तो जगत अंध-कूप, ज्ञान ही वाँछित प्रकाश।

पकड़ो प्रत्येक ऐसी ग्रंथि, पर खुलेगी वह पराक्रम ही से

पर नहीं वे अक्षर मात्र, अति-गुह्य स्व में समाहित किए॥

 

सम्यक-तत्व हैं बुद्ध-घोषित, मानस-जन पूर्णता से योग

वे समस्त आयाम-विस्तृत, अपनाने को हैं प्रेरित शोध।

कैसे बनें नागार्जुन सम भंते, क्या अपनाई शैली-जीवन

हर भिक्षु तो न सम अर्हत, लक्ष्यार्थ वाँछित शुभ-प्रयत्न॥

 

अनुपम-कर्म जीवन में ही, एकाग्रता से होते हैं फलीभूत

नित्य सम्पर्क नव-विचारों से, शैली में इंगित अनुरूप।

तब कैसे किया है उन्होंने निश्चय, रचने को इतना महद

या मात्र गतिशीलता से संभव, पर अल्प से ही प्रारम्भ॥

 

जुड़ते गए विभिन्न आयाम, मनन ढूँढ़ लेता अध्याय-स्व

लेखनी है कर-कमल, विद्वद्जनों से विवेचन- विमर्श।

क्या उचित है बहुत बार तो, स्व-विवेक तो लेता ही ढूँढ़

प्रायः न मिलती उचित राय भी, स्वयं से ही संभव कुछ॥

 

कैसे परम-अवस्था स्थित, वे महामानव चिंतन हैं करते

डूबे शंकर सतत मनन में, कोई बाधा भी सहन न करते।

जो भी कुछ अनुपम संभव, स्व-इन्द्रियाँ कूर्म-सम स्थिति

ऊर्जा सीमित अतः सु-प्रयोग से, हेतु सहायक है नियति॥

 

जीवन मिला है अत्यंत मधुर, आओ इसे सार्थक बना लें

सुपाठ पकड़े अध्ययनार्थ, ज्ञान को कर्म-दीपक बना लें।

हर नवीन पूर्णता- पूरक यहाँ, अतः निज-विस्तृतता बढ़ा

जीवन कर्म गति-वाहक, क्यों नहीं इसे लावण्यमयी बना॥


पवन कुमार,
१४ जनवरी, २०१५ बुधवार समय सायं २०:२०  
(  मेरी डायरी दि० २७ अक्टूबर, २०१४ समय सुबह ६:१० से ) 

Saturday, 10 January 2015

मन की धुन

मन की धुन 


मृदुल मन-स्वामी या सेवक, पुनः आपसे है अनुरोध

स्व-क्रियाऐं करो सयंमित, नितत रखो अपने उद्योग॥

 

तन- इकतारा, मन की धुन में, अपने को लगाए जा

लेकर नाम उस कर्ता का, दायरा अपना बढ़ाए जा।

गर्मजोशी व प्रसन्न- मुख से, प्रेम का सुर तू गाए जा

आत्मा होगी तभी पवित्र, जब सबको गले लगाए जा॥

 

छोड़ो संकोच, बढ़ाओ सोच, सर्वांगीणता की हो बात

सब अपने व मैं सबका, इस सोच में सोच मिलाए जा।

बहुत बढ़े हैं आगे ऐसे, मन को जिन्होंने विस्तृत किया

समय अल्प व कर्म अधिक, क्षमता अपनी बढ़ाए जा॥

 

जीवन-पथ अति सुगम, यदि जीने का ढ़ंग सीख लिया

फिर तान-सुर समय सब अपने हैं, मन में तू गाए जा।

सर्व-मार्ग लब्ध हैं जग में, उचित खोजना कर्म तुम्हारा

चलो चलते व ढूँढ़ते हैं, इस आशा को अग्र बढ़ाए जा॥

 

अपने में उचित मस्त पर चिंता मुझको इस जग की भी

कुछ तो कर्त्तव्य मैं पूरा करूँ, ये बातें तू समझाए जा।

गाकर अपने मन के गीत, जग को भी सुना तान कभी

कुछ अवश्यमेव लाभान्वित हैं, हृदय पवित्र बनाए जा॥

 

लोभ, लंपट, कदाचार, गर्व, ईर्ष्या यूँ ऊर्जा को नष्ट करें

परीक्षित सद्गुण अपना भाई, जीवन सफल बनाए जा।

इस जग का कारक है तू, और सबको तुमने काम दिए

फिर क्यूँ बैठा है खाली, जीवन को कर्म में लगाए जा।


पवन कुमार,
10 जनवरी, 2015 समय 16:52
(मेरी डायरी दि० 14 सितम्बर, 2013 से) 

Thursday, 1 January 2015

वर्ष-परिवर्तन

वर्ष-परिवर्तन 



इस कैलेंडर-वर्ष का अंतिम दिन, अंततः आ ही गया

अब कुछ घंटे ही शेष हैं, फिर नव वर्ष आगमन होगा॥

 

कैसे बीत जाते दिवस, मास, वर्ष और आयु-अवस्थाऐं

जीव महसूस न कर पाता, उम्र फिसली जाती हाथ से।

पैदा हुआ, युवा बना और वृद्धावस्था को दिशा ली कर

जीवन-चक्र में सब घूमता रहा, विस्मित देखते रहें हम॥

 

पर कैसे ठहरा लें वक़्त संग, क्या कुछ युक्ति संभव है

दिन रहें पूरी संचेतना से, ताकि गत पल-अहसास रहे।

कुछ यंत्र तो प्रारब्ध में मिलें, स्मृति को रूह में ही रखने

वह भी कालांतर-विस्मृत, और हम जीवन से परे होते॥

 

देखो, काल बीतता जाता यहाँ, कोई आऐ या फिर जाऐ

यह शाश्वत प्रवाह, लौटकर समय फिर वापस न आऐ।

हाँ माना चक्र-भाँति, पुनः-पुनः नव-रूपों में इंगित होता

क्या विभ्रांति व्यूह की, हम बदलते या यह चला जाता?

 

किसे कहें बदलाव, संसार-अवस्थाऐं या काल का बहना

हम बस खड़े नाटक करते रहते, लगता जग बदल रहा।

यह है स्व-जग रूपांतरण, जिसको काल-परिवर्तन कहें

कुछ नियम प्रकृति-प्रदत्त, उनके अनुसार सब चलन हैं॥

 

जंगम-स्थावर की शैली, एकत्रित निरंतरता काल धकेले

देखें तो कुछ न यूँ ही, सब अवस्थाऐं समय पर आती हैं।

ऋतुऐं समय पर, अन्य प्रकृति-कारक प्रभाव हैं जमाते हाँ

शनै-प्रक्रिया है, कुछ ध्यान से देखें तो अधिक न बदला॥

 

हाँ बदलाव है बाह्य रूपों में, प्राणी व स्थावर स्वरूप में

काल यदि कुछ वर्षों का, वह भी हमारी भाँति चल रहें।

हम हैं करते बीते पल स्मरण, कुछ भिन्न जो वर्तमान से

बड़ा संसार, बहु-प्रक्रियाऐं, चलती रहती चाहे-अचाहे॥

 

किसके रोके रुका जीवन, बहता अनवरत अनंत-रूप

नर हेंकड़ी भरता, संसाधनों पर अधिकार चाहता सर्व।

धनी, शक्ति-बुद्धिमान व अन्य भी, आवरण हैं चढ़ा लेता

जग-प्रक्रिया प्रभावित चाहे, अनाप-शनाप किए बहुदा॥

 

कुछ बदला प्रकृति ने स्वरूप, कुछ प्राणी भी प्रपञ्च किए

उन्हीं से धरा-दशा बदल रही, जिनको परिवर्तन हैं कहे।

कैसा व्यूह समझ नहीं पाते, निरंतर पुनरावृत्ति होती है पर

विशेष-काल में भिन्न रूप, अन्यथा तो एक सार सा सब॥

 

हाँ प्रकृति के काल-गर्भ जाकर, भिन्न अवस्थाऐं ज्ञात होती

इनको परिवर्तन कह सकते, क्योंकि अवस्थाऐं हैं बदलती।

कुछ हुए आमूल-परिवर्तन, उन्होंने आयाम-दशा दी बदल

सब इतना शनै, अपवाद यदि तो गुजर जाना ही है कथन॥

 

नव-वर्ष आया, प्राचीन बीता व कामना-प्रार्थना मंगलमय की

क्या चेष्टा शुभ हेतु, यह एक काल-खंड अनुरूप बनाने की।

पूर्ण भाग्य, जैसे सूर्य तारक का जीवन-चक्र तो प्राणी-वश न

तथापि प्रस्तुत वर्तमान में यदि संभव, तो उसका ही प्रबन्धन॥

 

कहो, मिल बनाऐं वर्तमान बेहतर, तब वर्ष मंगलमय कहेंगे

निज समय-भविष्य के मालिक, क्यों न बुद्धि में चिंतन करें।

समय यूँ आएगा, अपने लिए वर्तमान में कुछ बना लो जगह

सकारात्मक निर्वाह-भागी बनें, तब मंगल-कामनाऐं सार्थक॥



पवन कुमार,
01.01.2015 समय 23:59 
(मेरी डायरी दि० 31.12.2014 समय 9:16 प्रातः से )