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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Monday, 13 July 2020

घर-बाहर

घर-बाहर 
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मेरी दुनिया क्या है, परिवार जहाँ जन्मा या वह जहाँ वर्तमान में रह रहा 
अनेक शिक्षण-कार्य स्थलों में दीर्घकाल, घर के अलावा भी कई आयाम। 

देखना चाहूँ  कितना घर या बाहर, क्या प्रतिबद्धता काल -अनुपात में माप 
या कुछ पक्ष औरों से महत्त्वपूर्ण, गुणवत्ता का  मात्रा से कहीं अधिक भार। 
सब पक्षों का स्व प्रभाव, मानव सुस्त तो भी दुनिया निज कर्म करती रहती 
हर निवेश का स्वभाव अतः कुछ  न गौण, सहयोग से ही दुनिया बनती।  
 
क्या सोचूँ जितना मनन करूँ, दायरा बढ़ता या  सिकुड़ता जाऐ आत्म तक 
माता-गर्भ में अकेला था पर कुछ  परिपक्व हो, बाह्य -ध्वनियाँ लगा श्रवण। 
जन्म-पश्चात तो सब तरह का कोलाहल, शांत मन पर निरत हथौड़े बरसते 
परिजन-संबंधी, पड़ौसी-गाँव वाले, मामा-चाचा, बुआ, चचेरे-फुफेरे-ममेरे। 

 नर की निज तो न मौलिकता, यहीं से अन्न -जल-शिक्षा ले प्रभावित रहता 
कुछ तंतु तो पृथक मनों में, स्वभाव-गुण, विविध तौर-तरीक़े लेते अपना। 
बाह्य नज़र में तो सब एक जैसे  होते, पर  अनेक विरोध पाले रखते अंतः 
विविधता एक जीव पहलू, स्वीकृति में न दोष, पर अभी दायरे पर मनन। 

कह न सकता पूरे गाँव को जानता, असंभव भी, जाने गए संपर्क वाले ही 
मुझे भी अनेक जानते होंगे, कुछ  ऐसे  होंगे जिनसे कभी बात ही न हुई। 
कुछों को पसंद या नापसंद करते,  लेकिन कुछ रिश्ता तो बना ही रहता 
रिश्तेदार आते या मैं जाता, निकटस्थ गली-सड़क का कुछ प्रभाव होगा। 

स्कूल शुरू तो नया  परिवेश, बाहरी शिक्षिकाऐं, छात्रों का निज परिवेश 
पर सब बैठ शिक्षिका की बात सुनते, अंतः प्रवेश करता कुछ सम रस। 
वही पाठ्य- पुस्तकें व माहौल, विविधता  में एकता-सूत्र पिरोने का यत्न 
परीक्षा-प्रश्न,  प्रार्थना-खेल, डाँट-डपट, गपशप, बाह्य भी माहौल एक।  

घर आगमन बाद वही माँ-बाप, सहोदर-पड़ोसी, स्कूल को भूलने लगते 
पशु-पेड़, घर - बगड़, घेर-गंडासा, मार्ग-तालाब, सदैव प्रभावित करते। 
खाली हुए तो मित्रों संग खेलने लगते, घर के पास या कभी गाँव के गोरे 
वर्षा में मस्ती, भैंस की पूँछ पकड़ जोहड़ में, गिल्ली-डंडा, पिट्ठो खेलते। 

स्कूल से अलग  गृह परिवेश, छुट्टियों में मज़े होते, कई दोस्त बन जाते 
पेड़ों पर चढ़ते, बड़ की बरमट नमक लगाकर खाते, कभी कच्चे आम,
बेर-जामुन-अमरूद-लसोडा-शहतूतों की खोज में कभी यूँ घूमते रहते। 
साइकिल चलाना सीखते, कैंची से डण्डा फिर काठी और पीछे कैरियर
सब मिल महद रोमांच भरते, सीखते जाते, दुनिया होती रहती विस्तृत। 

गाँव से नगर के बड़े स्कूल गए, कई पृष्ठभूमियों के स्टाफ़, छात्र-शिक्षक  
कोई इस या अन्य गाँव का, शहर या निकट क़स्बे का, धनी  या निर्धन। 
कोई पैदल या  साइकिल से आए, बस-ट्रेन तो कोई ऑटो-स्कूटर से ही 
 कोई समीप या  दूर से, छात्रावासित, अधिकांश आते- जाते घर से ही।   

लघु-बड़ी कक्षाऐं स्कूल में, सबको न जान सकते, धीरे-२ प्रवासी वरिष्ठ 
हम भी बड़ी कक्षाओं में बढ़ते, खंड बदलते, नव मित्रों से प्रेम-परिचय। 
कोई जरूरी न सब पसंद ही, अनेकों से उदासीन या नापसंद भी करते 
शिक्षकों का भी अतएव व्यवहार, उनके विषय में निश्चित राय बना लेते। 

बचपन में कितने ही मित्र संपर्क में आते, सारे कहाँ याद रह पाते हैं पर 
जिनके संग खेलें-पढ़ें, एक व्यवहार था, आज स्मृति-पटल से हैं विस्मृत। 
कह सकते हैं मानव के वृहद भाग के साथ रहकर भी, पराए से ही रहते 
अन्यों के ज्ञान विषय में सीमित ऊर्जा, असमर्थ अनेक संपर्क निर्माण में।  

कॉलेज गए विलग ही परिवेश, अनेक स्थानों के छात्र-छात्राऐं व शिक्षक 
 कोई परिचित भी मिल जाता, अन्यथा खुद से ही बनाने पड़ते कुछ मित्र। 
फिर पहुँचने हेतु किसी वाहन का प्रबंध, पुस्तकें-कॉपी-पैन  व जेबखर्ची 
दोस्तों संग सिनेमाघरों में फिल्म की लत पड़ जाती, पढ़ाई गौण हो गई।  

फिर जैसे-तैसे कुछ पढ़े, जैसा भी परिणाम आया फिर नए संस्थान गए 
वहाँ माहौल और बड़ा विचित्र, कई वहम टूटते, पर संपर्क बनता शनै। 
सीनियर-जूनियर मिलते, जिंदगी में एक छवि बनाते लोग लेते उसी सम 
शनै अनेकों से लगाव-गुफ़्तगू, खेलते-गाते व पढ़ते, पूरा हो जाता समय। 

अतएव कार्यस्थलों पर अनेकों से भी मिलन, व्यक्तित्व में लाभ है रहता 
घर के अलावा  भी निज जग, सब अपने हैं बस संजोना आवश्यकता। 


पवन कुमार,
१३ जुलाई, २०२० समय ८:१४ बजे सायं
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी  दि० १२.०६.२०१९ समय ८:५१ प्रातः से )  

Monday, 29 June 2020

ख़ानाबदोशी-खोज

ख़ानाबदोशी-खोज
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एक ख़ानाबदोश सी  जिंदगी, निर्वाह हेतु हर रोज़ खोज नए की
सीमित वन-क्षेत्र, कहाँ दूर तक खोजूँ, शीघ्र वापसी की मज़बूरी। 

कुदरत ख़ूब धनी बस नज़र चाहिए, यहीं बड़ा कुछ सकता मिल 
अति सघन इसके विपुल संसाधन, कितना ले पाते निज पर निर्भर। 
पर कौन बारीकियों में जाता, अल्प श्रम से ज्यादा मिले नज़र ऐसी 
दौड़-धूप कर मोटा जो मिले उठा लो, भूख लगी है चाहिए जल्दी। 

मानव जीवन के पीछे कई साँसतें पड़ी, चैन की साँस न लेने देती 
क्या करें कुछ विश्राम भी न, होता भी तो बाद में न रहता ज्ञात ही। 
मात्र वर्तमान में ही मस्त, भोजन जल्द कैसे मिले ज़ोर इसी पर ही
घर कुटुंब-बच्चे प्रतीक्षा करते, आखिर जिम्मेवारियाँ तो बढ़ा  ली। 

जिंदगी है तो  कई अपेक्षाऐं भी जुड़ी, बिन चले तो जीवन असंभव
फिर क्या खेल है प्राण-गतिमानता, निश्चलता तो मुर्दे में ही दर्शित। 
किसे छोड़े या अपनाऐं, सीमाऐं समय-शक्ति, प्राथमिकताओं की 
सर्वस्व में सब असक्षम, हाँ क्रिया-वर्धन से कुछ अधिक कर लेते।  

दौड़ शुरू की तो देह  दुखती, सुस्त तो व्याधियाँ घेरती अनावश्यक
 व्रत करो तो कष्टक अनुभव, बस खाते रहो तो पेट हो जाता खराब। 
 पूर्ण कार्यालय प्रति समर्पित तो घर छूटे, सेहत हेतु भी होवो संजीदा 
घर-घुस्सा बने रहे तो बाह्य दुनिया से कटे, बस उलझन करें क्या ? 

अकर्मण्य तो अपयश पल्ले, करो तो जिम्मेवारियाँ सिर पर अधिक 
शालीन हो तो लोग हल्के में लेते, सख़्ती करो तो कहलाते गर्वित। 
ज्यादा खुद ही करो तो  अधीनस्थ निश्चिंत हो जाते, काम हो  जाता 
अधिक दबाओ तो रूठ जाते, थोड़ा कहने से भी  मान जाते  बुरा। 

 कटुता का उत्तर न दो तो कायर बोधते, समझाओ तो डर अनबन का  
सहते रहो तो अन्य सिर पर धमकता, जवाब दो तो लड़ाई का खतरा। 
संसार छोड़े तो भगोड़ा कहलाते, चाहे वहाँ भी न मिलता कोई सुकून 
जग में रहना-सफल होना बड़ी चुनौती, हर मंज़िल माँगती बड़ा श्रम। 

सुबह जल्दी उठो तो मीठी नींद गँवानी, पड़े रहो तो विकास अल्पतर 
यदि मात्र कसरत में देह तो बलवान, पर दिमाग़ी क्षेत्र में जाते पिछड़। 
जब वाणिज्य में हो तो झूठ बोलते, सारे चिट्ठे ग्राहक को दिखाते कहाँ 
शासन से बड़ा कर छुपा लेते हो, आत्मा एकदा भी न कचोटती क्या? 

कदापि न परम-सत्य ज्ञान में सक्षम, कुछ जाने भी तो सार्वभौमिक न 
जग समक्ष पूरा सच रखे तो अनेक लोग शत्रु बन जाऐंगे अनावश्यक। 
लोग खुद में ही बड़े समझदार हैं, जो अच्छा लगता वही सुनना चाहते 
बुद्धि को अधिक कष्ट न देना चाहते, आत्म-मुग्धता में ही मस्त रहते। 

धन तो  युजित आवश्यकता-क्षय से, विलास-सामग्रियाँ एक ओर रखें 
सदुपयोग भी एक कला, पहले दिल तो बने उत्तम दिशा में हेतु बढ़ने। 
जब स्वयं विभ्रम में, दुनिया की कौन सी चीज बदल देगी सकारात्मक
नकारात्मक तो खुद ही हो जाएगा, अंतः-चेतनामय क्रिया आवश्यक। 

एक तरफ नींद नेत्र बंद हो रहें, किंतु चेतन गति हेतु कर रहा बाध्य 
एक अजीब सा युद्ध खुद से ही, हाँ विजय उत्तम पथ की अपेक्षित। 
अपने में ही कई उलझनें, अन्यों के अंतः तक जाना तो अति-दुष्कर 
कैसे किसे कितना कब क्यों कहाँ समझाऐं, सब निज-राह  धुरंधर। 

अभी प्राथमिकता स्व से ही उबरने की, चिन्हित तो कर लूँ पथ-लक्ष्य
  बड़ा प्रश्न कर्मियों की सहभागिता का, सब तो यज्ञ-आहूति में आए न। 
बहुदा लोग तो बस समय बिताते हैं, तेरी इच्छा में क्यों सहभागी बनें 
जब तक बड़ा हित न दिखता, क्यों अपने को तेरी अग्नि में झोकेंगे। 

कुछ मेधा हो तो जग समझोगे, अपने ढंग से बजाते लोग ढ़फ़ली 
   किसी भी बड़ी परियोजना हेतु, कर्मियों का मन से जुड़ना जरूरी। 
वे उतने बुरे भी न बस कुछ स्वार्थ, व्यर्थ पचड़ा न चाहते, दूर रहो 
तुम यदि अग्रिम तो यह सफलता, कि अधिकतम अपना समझे। 

चलिए यह थी ख़ानाबदोशी खोज, खुद से जैसा बना खोज लिया 
यह पड़ाव था पूर्ण दिवस-यात्रा शेष, आशा वह भी उत्तम होगा। 
बुद्ध ने मध्यम-पथ सुझाया, हाँ कुछ तो ठीक है हेतु आराम-गुजर 
पर क्या चरमतम तक पहुँच सकते, उसकी खोजबीन जरूरत। 

परम  गति चाहते हो तो होवो पूर्ण-समर्पित, इसमें अतिश्योक्ति न
परिश्रम उत्कृष्ट श्रेणी का, मात्र दूजों को ही देख न रुदन  उचित। 
माना कुछ अन्य संग लगा दिए, उनका तुम पूरा साथ-सहयोग लो 
वे भी तेरी शक़्ल देखते, कुछ जिम्मेवारी देकर फिर नतीज़ा देखो। 

खुद से ही कई अपेक्षाऐं जुड़ रही हैं, अच्छा भी है तभी तो  सुधरोगे 
 कुछ योग्य शरण में आओ, सीखने के जज़्बे बिना कैसे आगे बढ़ोगे। 
खुद से श्रम में कमी न हो,  सहयोगियों को भी पूर्णतया जोड़ लो पर 
कोशिश वे भी संगति से उपकृत हों, योग्यता बढ़नी चाहिए निरंतर। 

सुभीते जीवन-चलन हेतु आवश्यक, नीर-क्षीर भेद करने का प्रज्ञान 
फिर उचित हेतु कष्ट लेने में भी न झिझको, झोंक दो विक्रर्म तमाम। 
तन-मन विक्षोभ की किंचित भी न परवाह, सब आयाम बस लक्ष्य के 
प्रक्रिया में अति ताप-दबाव सहना पड़ता, गुजरे तो आदमी बनोगे। 

एक अत्युत्तम लक्ष्य बना लो जिंदगी का, अभी समय है पा हो सकते 
विगत से भी सक्षम बने हो, कमसकम मन-बुद्धि-देह तो साथ दे रहे। 
किसी भी क्षेत्र में  संभव है उन्नति, जग तो अपना करता रहेगा काम 
तेरा कर्मक्षेत्र ही है कुरुक्षेत्र-युद्ध, पर जीतना तो है लगाकर ही जान। 

मंथन हो जय-संहिता के शांति-पर्व सम, भीष्म -व्याख्यान राजधर्म   
जीवन-सार संपर्क दैव  से प्राप्त, पर सदा उत्तम हेतु रहो कटिबद्ध। 
जीवन में सब  तरह के पक्ष सामने आते, पर न डरो बस चलते रहो 
जीवन समेकित ही  देखा जाएगा, अविचलित हुए कर्मपथ में बढ़ो। 

धन्यवाद कलम ने आज यह यात्रा कराई,  इसी ने बड़े कर्म करवाने
यही मस्तिष्क की कुञ्जी, कर्मक्षेत्र में बढ़ने को यही प्रेरित करती है। 
कल्याण इसी से होगा इतना तो विश्वास, समय बस प्रतीक्षा रहा कर 
इसका संग, न कोई ग़म, जहाँ ले जाएगी जाऊँगा, सब होगा उत्तम। 


पवन कुमार,
२९ जून, २०२०, सोमवार, समय ६:१७ सायं  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ९ अगस्त, २०१७ मंगलवार, ८:०७ बजे प्रातः से) 
   

Monday, 15 June 2020

प्यार-प्रेम पथ

प्यार-प्रेम पथ
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हम क्यूँ जल्दी करते, आपसी रिश्तों का भी न कोई ध्यान 
खुद में ही सुबकते रहते, कई खुंदकें दिल में रखी  पाल। 

अंततः इंसान हैं कौन, क्यों अपनों से मन की न सकते कह 
परस्पर के सुख-दुःख में सम्मिलन की होनी चाहिए पहल। 
क्यों सदा अपेक्षाऐं ही कि कोई निज आकर ही करे सलाम 
या पहल से तो छोटे हो जाऐंगे, जग के नाज़ो-नखरें अजीब। 

कई वहम पाल रखे मन में, दूजों की साधुता तो ख़्याल में न 
निज दर्द कहने का भी न साहस, अंदर से ही सुबकते बस। 
खुलकर ख़ुशी में न मुस्कुराते, यदा-कदा बस औपचारिकता 
नेता-अभिनेताओं के तो भक्त, पर निकटस्थों से है बिदकना। 

इतनी नीरसता क्यूँ जीवन में, क्यों न कोई बाल-मुस्कान सराहें 
इतना दिल कि भतीजे-भांजे, रिश्तेदार के बच्चों को प्रेरणा दें। 
परस्पर कद्र करनी चाहिए, पर बड़ाई करने भी साहस चाहिए 
दिल क्यूँ है संगदिल, जमाने संग बहो, शायद खुश रह सकते। 

क्यूँ अपेक्षाऐं जग से, शायद चाहते कि किंचित और अच्छा हो 
आशा कि बंधु खूब  तरक्की करें, खरा न उतरने  पर है क्षोभ। 
पर खुद कितना उन हेतु झोंकते, निवेश हिसाब  से ही उत्पाद
सफल निर्वाहार्थ सहयोग माँगता, खुंदकी से तो  बस खिंचाव। 

ये कैसे रिश्ते औपचारिकता भी न, साधन बाँटना  बात ही और 
कभी खट्टे-मीठे बोल भी न, शिकायत निर्वाह करना भी सीखें। 
क्या ज्ञानेद्रियाँ बस अनुभव हेतु, या अपने भाव भी कर दें प्रकट 
कहना-सुनना सहज प्रक्रिया, संवादहीनता निस्संदेह ही मारक। 

यूँ जीवन बीत रहा स्व-खिंचन में ही, पर शिकायतें भी न ज्ञात
बस कुछ उल्टा-सीधा सुन रखा, कई भ्रांतियाँ हैं स्व-निर्माण। 
एक सहज रिश्ता जो  सुलभ संभव, यदि मन-अहंकार  त्याग 
न कभी बात न लेना-देना, हमें क्या वे अपने को सोचते बड़ा। 

हम प्रेम पालें, परस्पर आदर करें, मन की बताऐं उनकी सुनें 
जीवन सदा भागता ही, क्यों न कहीं ठहर कुछ पल बाँध लें। 
आपसी लाभ भी लेना चाहिए, प्रयोजन हेतु बहिर्चरण जरूरी 
सीखना जरूरी जग  से निबटने हेतु, एक पथ प्यार-प्रेम भी। 

सारी जग खिंचा पूर्वाग्रहों में, सुबह से शाम तक शिकायत ही 
सब रिश्ते कुछ खिंचे से, बाप को बेटे से, बेटी को माँ से ग्रंथि। 
वह भी कोई  समस्या है न, यदि दृष्टिकोण सकारात्मक-हितैषी 
 कर्मठता - नियति जरूरी, सहयोग लेन-देन में न झिझक ही। 

उत्तम जग-स्थल निर्माण  दायित्व सबका, आओ सहयोग करें 
कुछ गुण कार्य-निष्पादन मूल्यांकन विवरणी के भी अपना लें। 
पहल-शक्ति एक सुगुण, उसके बिना अनेक  बाधित  रहते हैं 
बाल-सारल्य त्याग वयस्क समझने लगें,  दुनिया से  कट गए। 

बस अपने को सिकोड़े जा रहें, दुनिया से भी कई शिकायतें 
चलो है सुधार-आवश्यकता, पर कौन रोकता न बढ़ो आगे। 
जग मात्र हम जैसों का जमावड़ा, कह दो यदि कुछ कटु भी 
शिकवा छोड़ वृहद-हित सोचें, सफलता हेतु खटना पड़ता । 

जीवन डिज़ाइन होना ही चाहिए, अनेक पहलू साधना माँगते 
क्यूँ इसे दोयम रखे, कुछ और हिम्मत करके दुनिया लाँघ दे। 
क्यूँ फिर अल्प-संतुष्टि, जब कई राहें खुलीं मंजिलों हेतु  बड़ी 
अभी समय है  व्यवधान लाँघो, सोचने में भी है ऊर्जा लगती। 

कभी यूँ ही मुस्कुरा दो, लोग इतने भी न कर्कश अर्थ न समझे 
संकेत भी लेने  आने  चाहिए, कोई फालतू  तुम ऊपर न पड़े। 
दुनियादारी एक अजीब सर्कस, बनो एक प्रशिक्षक-सुप्रबंधक 
अनेकों ने है परिवेश महकाया, देखना शुरू करो मिलेंगे बहुत। 

ऐ जीवन, कृपा करो, रहम-दिल बनाओ, सर्व-दर्द समझ सकूँ 
सर्वजग एक कुटुंब सा बने, एक माली भाँति हर पादप सीचूँ। 


पवन कुमार,
१४ जून, २०२० रविवार, समय १२:०० बजे म० रा० 
(मेरी डायरी १३ जुलाई, २०१८ समय ८:३४ बजे प्रातः से) 
 


Sunday, 31 May 2020

उत्तम-प्रवेश

उत्तम-प्रवेश
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खुली आँखों से स्वप्न देखना, किंचित बाहर आना तंद्रा से
  बस यूँ नेत्र खोलें, कितनी संभावनाऐं  हो सकती मन में।  

शिकायतें कई तुमसे ऐ जिंदगी, न खिलती, न रूप दिखाती 
कहाँ छुपी बैठी रूबरू न हो, तड़प रहा तुममें रहकर भी।  
जल में रहकर भी  प्यासा, यह तो कोई फलसफ़ा न है भला 
ऑंखें मीचे सोता रहूँ तुझे न मतलब, कैसा निभा रही रिश्ता। 

मेरा सोना क्या और जागना क्या, जब दोनों में ही न स्पंदन 
प्राण तो पूर्ण जिया ही न, कुछ पेंच फँस काट दिया समय। 
ऐसे कोई मज़ा आए न, सौ में से एक-दो नंबर पा लिए बस 
उत्तीर्ण हेतु न्यूनतम तो पाऐं, उत्तम-उत्कृष्ट स्थिति अग्रिम। 

यह जीवन क्या, कैसे जी रहा, कुछ समझ तो अभी न आया 
या कि कभी कोशिश ही न की, जैसे आया वैसे बिता लिया। 
 जब  यूँ तंद्रा मन-देह में, पूर्ण चेतना बिना तो अधूरा ही होगा 
कोशिशें भी कुछ अधूरी ही, इच्छा-स्तर  भी दोयम ही रहा। 

   कोई कुछ छंद-कुंद जोड़ देता, मैं अवाक्-विस्मित सा देखता     
निज का जैसे वजूद न, किसी ने कुछ बताया उधर हो लिया। 
जीवन-सलीका तो बड़ी दूर की बात, सुस्ती छूटे तो सोचूँ कुछ 
मौका-ए-जिंदगी यूँ भागा जा रहा, बीता तो क्या कहूँगा फिर। 

दिन-रैन आते-जाते, कभी गुनगुना देता, प्रतिक्रिया देता कर
पर क्या सत्य प्रक्रिया इस प्रवाह की, रहस्य-अर्थ तो ज्ञात न। 
जग क्या-क्यूँ समझे, शख्स को खुद का ही न पूरा पता जब 
    कभी प्राण-स्पंदन हो जाता है, पर है पूर्ण का अत्यल्प अंश।    

यदा-कदा की बेचैनियाँ कष्टकारक ही, कोई न चेतना वरन 
वैद्य ने बस दर्द कम करने की सूई दी, यह कोई ईलाज न। 
वैद्य रोग बताता भी न, जानता कि कोई ज्यादा लाभ न होगा 
इसकी काट अति कष्टमय, शायद संग लेकर मरना होगा। 

इस दुनिया में तो भेजा हूँ, मेरा भी यहाँ कुछ अधिकार होगा 
जहाज में धक्का मार घुसा दिया, बे-टिकट तो मिलेगी सजा। 
पास जुर्माने की दंड-राशि भी न है, न ही लेगा कोई जमानत 
न कुछ गिरवी रखने को ही पास, कैसे निदान होगा पता न। 

शायद देह-मन यंत्रणा सहनी होगी, जग में अधिक दया न 
या योग से कोई दयालु मिले, डाँट-फटकार से ही दे छोड़। 
तथापि निरीह ही, इस कष्ट से निबटा अग्रिम का होगा क्या 
कुछ योग्य-सुकर्म अनुरूप न बना, कैसे होगी अग्रिम राह। 

कुछ दया-डाँट, दर-बदर भटकना, मायूसी से क्या जीना यूँ
कोई सुयोग्य-कर्मठ क्यूँ न बनाता, जीवन-राह सीख जाऊँ। 
जीना वही जो  पूर्ण  जीया, हर रोम से जीवन हो मधु सिक्त 
अंतः-उत्तम तो तभी बाहर आएगा, अंतः-सुदृढ़ता से हित।  

कुछ खान-पान-सोच दोषित, इतनी तंद्रा तो कदापि न वरन
विज्ञान शिक्षा प्राण-प्रक्रिया के नियम, कोशिका रचना-क्षय। 
जाँचन-सामर्थ्य तो न मुझमें, सुशिक्षित भी न जो जाऊँ समझ
बाह्य विज्ञान अति जटिल, विश्व समझना भी न इतना सरल। 

कौन नियम पालन ग्राह्य-स्थिति हेतु, रग-२ से टपके संचेतना 
स्व-आत्मीयता, गुण-दोषों से सहजता, सदा न लड़ सकता। 
आत्म-आलोचना आवश्यक, ज्ञान पश्चात ही कुछ चरण संभव 
पर सोच-समझ पूर्णता पर लाओ, अपने को कर लो दुरस्त। 
  
कैसा भवंडर निर्गम न होने दे रहा, निकलूँ तो सोचूँ सुधार की
ज्ञानमय हूँगा तो स्थिति सुधरे, पर पूर्वार्थ अभी मात्र इच्छा ही। 
भोर हो तो दिखेगा चलने को, अभी रात्रि-तमस में अटका पड़ा 
मन-देह प्रभा व सामर्थ्य-उत्कंठा का संगम, शायद बने बात। 

यह जिंदगी मिली कुछ महद उद्देश्य हेतु, चाहे अज्ञात हो मुझे ही 
प्रथम दिन शाला गया शिशु अज्ञान, कि विद्या विद्वान बना देगी। 
सफलता-सोपान खुलेंगे व यश-कीर्ति अवसर प्रारंभ होंगे समक्ष 
जीवन तब सुघड़ ही गुजरेगा, बहुरंग खिलेंगे, हो पुलकित मन। 

यही प्रार्थना कोई उत्तम में प्रवेश करा दे, प्रशिक्षु शिक्षक का भले 
डाँट-फटकार, स्नेह या अन्य युक्ति से यह मूढ़ भी कुछ योग्य बने। 
अभी समझ न भावी परिणाम, शायद  कालक्रम में जाऊँ समझ 
यद्यपि ऐसा न दर्शित, तभी तो छटपटाहट, हूँ किंकर्त्तव्य-विमूढ़। 

इस क्षुद्र मन में इतनी पीड़ा, कैसे उपचार हो बुद्धि सोच न पाती 
सिमटा बस कलम-कागज पर ही, रह-२ हो जाता असहज वही। 
क्या करूँ यही समक्ष पल-स्थिति, कुछ पृथक तो तथैव उकेरूँगा 
पर लक्ष्य एक आत्मसातता का, वर्तमान मंथन विलग निकालेगा। 

चाह न अति विद्वान या समृद्ध होने की, उचित राह  पर्याप्त बस
गति पर कहीं पहुँचेंगे यदि दिशा हो, उपलब्धि बढ़ती उम्र सम। 
कुछ ढंग तो आए, साहसी कदम हों, योजना-परियोजना तो बने 
निस्संदेह उत्तरोत्तर सकारात्मक वृद्धि, बेचैनी दूर, मुख स्मित से। 

इतना तो अवश्य श्रेष्टतम से संपर्क हो, उन सम मन-बुद्धि बढ़े 
सबको पूरे विकास-अवसर, फिर क्यूँ अल्पता में ही अटके रहें। 
सत्य माना सब समरूप न बढ़ते, पर अनेक भी तो  आगे आए 
यदि प्रयास न तो कोई अन्य आएगा, तुम न तो अनेक पंक्ति में। 

सुचिंतन हो, नकारात्मकता पर विजय, हदों से कराएगी परिचय 
यह गंगा सलिल-प्रवाह सागर ओर, अति-विपुल से होगा मिलन। 
जब पूर्ण-पुष्पण होगा, तो सब वाँछित परिस्थितियाँ होंगी निकट 
इतनी जल्द हार मानने वाला भी न, अग्र बढ़ना न कोई संशय। 

क्या है इस कवायद का अर्थ, पर ऊर्जा-स्पंदन देता हेतु श्रेयस 
हर प्राप्ति माँगती निज मूल्य, समृद्ध बनो तो दे सको वाँछनीय। 
जीवन में प्रयास अति महत्त्वपूर्ण, दृष्टि उत्तम हेतु सततता रखो 
अग्रसर सुपग ही लक्ष्य पहुँचाते, अतः सर्व-इन्द्रि सुनिर्वाह करो। 


पवन कुमार,
३१ मई' २०२०, रविवार समय ५:२५ बजे अपराह्न 
(मेरी डायरी दि०  १८ अगस्त' २०१६, वीरवार समय ४:०५ बजे अपराह्न से)

Friday, 15 May 2020

विपुल परिचय

विपुल परिचय
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प्रतिदिन अनेकानेक घटित सर्वत्र, नर एक समुद्र-बूंद से भी अल्प 
हर पल अति महद निर्मित, कायनात के कितने क्षुद्र-कण हैं हम। 

कुछ पढ़ा-देखा, पृथ्वी व सूर्य की आयु बताई जाती ५ खरब वर्ष  
ब्रह्मांड-वय को बिगबैंग से १५ खरब वर्ष हुआ हैं मानते लगभग। 
कुछ समय पूर्व तक यूनिवर्स ही प्रचलन में, अब मल्टीवर्स चर्चा में
एक ब्रह्मांड परे भी अनेक अन्य हैं, मानव ज्ञान-पराकाष्टा से आगे।

बिगबैंग पूर्व भी  महा-गोलक में कुछ तो था, अज्ञात है कितनी वय
किसी महद प्रक्रिया चलते महाठोस होगा, बिखरा सा उससे पूर्व।
बिगबैंग द्रव्य से नक्षत्र-ग्रह-उल्का निर्माण में, बहु  आयाम निहित
    सौर-वृत्त में पृथ्वी एक क्षुद्र-ग्रह, जीव-मनुज विकास बड़ी पश्चाद।    

भारत में युग-महायुग-कल्प-महाकल्प आदि काल-अवधारणा विपुल
सत  १७.२८, द्वापर १२.९६, त्रेता ८.६४ व कलियुग ४.३२ लाख वर्ष।
सब मिल एक महायुग बनाते, जो बनें ४३.२ लाख वर्ष की दीर्घ काल
 १००० महायुग से एक कल्प या ब्रह्मा-दिवस व अवधि ४.३२ अरब वर्ष।
ब्रह्मा-सृष्टि आयु १०० कल्प-वर्ष या एक महाकल्प, होते ३११.०४ खरब
सृष्टि-स्थिति-लय महद विचार, महाप्रलय में विश्व संहार करते शिव। 

पुरा नर-बुद्धि भी नवीन से अल्प न विकसित, हाँ अनुमान करती थी यत्न
जितना समझा कह-लिख दिया, कुछ बाद वाले प्रतीतते अक्षरशः सत्य। 
अब विज्ञान-प्रयोग गूढ़-विवेचन हो रहें, अनेक पूर्व-रहस्य अन्वेषित-स्पष्ट 
नवीन नित समक्ष गोचर, प्रत्येक से परिचय की समय-ऊर्जा तो न है पर। 

हर पल विपुल निजी-बाह्य जग घटित, कैसे समुचित से परिचय संभव 
मेरी वय भी मध्यम हुई, गणना हिसाब से लगभग १९००० होंगे दिवस। 
इनमें अति-घटित हुआ, कम्प्यूटर मैमोरी की GB/TB में मापना कठिन
   नर कब इतना विकसित, हर विचार-वार्ता, दैनंदिन चर्या एकत्रण समर्थ।  

अनेक CCTV कैमरे लगें दुकान-कार्यालय, पर पूर्ण का मात्र अल्प अंश 
सघन उपकरण चाहिए संग्रहार्थ, फिर हुआ भी तो कितना प्रयोग संभव। 
यदि पूर्ण सचेत मनन-प्रक्रिया में तो भी, निकट विशेष घटनाऐं ही दर्शित 
 फिर स्मृति-विशेष अतिरिक्त तो अन्यान्य प्रतीत, कैसे सक्षम जग समस्त। 

अनेक चराचर खेल यहाँ, लोग अनेक विचार-मनन अभिव्यक्त कर रहें 
 क्या हम भी उन तथ्य-तहों तक जा सकते, वे स्वयं में पूर्णतया निखरे हैं।
वैसे किसे जरूरत अन्य-विषय सिर खपाने की, निजी ही कई असुलझे 
     ऐसे तमाम प्रसंग, कल का खाया तो आज न याद, नर स्वयं-भ्रमित है।      

हम अति अल्प हैं, यह पूर्ण कायनात समझने में तो नितांत असमर्थ 
चाहे जितने भी यत्न जन्मों तक, सीमाऐं हैं जाने की इसकी तहों तक। 
पर कमसमकम वे विषय तो चिन्हित हों, जो हमारी पहुँच में सकें आ
श्रम से कुछ सकारात्मक भाव, फिर खेद न कि प्रयास ही न किया। 

यह जीवन कुछ समझना पड़ेगा, तब कुछ पन्ने पलटने में सक्षम होंगे 
तभी निकट परिवेश उचित हो सकेगा, बगिया महकेगी, काम बनेंगे। 
चाहे महासूक्ष्म-बिंदु या नक्षत्र-विज्ञान, समझ से ही एक धारणा उचित 
पर बड़ा सोचने में न हो कोई निज कसर, सर्व-सीमाऐं स्वतः वर्धित। 


पवन कुमार,
१५ मई, २०२० शुक्रवार, समय ९:५५ बजे प्रातः 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २४ अगस्त, २०१७ समय ९:१९ बजे प्रातः)       
     
  

Sunday, 26 April 2020

स्व-उत्थान

स्व-उत्थान 
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स्व-उत्थान लब्ध किस श्रेणी तक, नर मन का चरम विकास 
क्या अनुपम मार्ग अनुभवों का, स्वतः स्फूर्त परम-उल्लास। 

भरण-पोषणार्थ तन नित्य-दिवस, माँगता आवश्यक कार्य  
ऊर्जा-बल प्राप्त अवयवों से, जग-कार्य संपादन में सहयोग। 
उससे मन-रक्त संचारित रहता, उचित कार्यान्वयन परिवेश 
पर सत्य आहार चिंतन विरल का, सहायक उन्नयन प्रवेश। 

कौन दिशा विस्तृण-संभावना, या सर्व-दिशा एक सौर सा वृत्त 
मेरा विकिरण कितना प्रभावी, करूँ श्लाघा सामर्थ्यवान तक। 
क्या यह मन संपूर्ण देख पाता, अपूर्वाग्रह सब मनुज-दृष्टिकोण 
निज-संतुष्टि या सर्व प्रकृति को भी, कर्तुम सक्षम आत्म-स्रोत। 

कैसे बढ़े यह लघु-मन सीमा, क्या आवश्यक यज्ञानुष्ठान हव्य 
महर्षियों सा अनुपम-चिंतन, अपने विधान में ब्रह्मांड समस्त।
स्व-धर्म-ध्वजा बस अग्र-प्रेषक हो सके, हों सब वितण्डाऐं पार 
अनेक रत्न बिखरें इस मार्ग, बनाओ सुंदर-समृद्ध मुक्ता हार। 

कैसे स्थिर वर्तमान में एक ही क्षेत्र, वृद्धि अदर्शित मृदुता ओर 
हर शब्द पर है कलम रुध्द, कुछ चिंतन हो भला करे विभोर। 
कैसे एक ज्ञान-सीढ़ी निर्माण, शीघ्र निश्चित हो वह महद लक्ष्य 
बंद हैं गलियाँ अंधकार चहुँ ओर फैला, कैसे निकलूँ सूझे न। 

किस पंथ-मनस्वी से मेल खाता, कैसे उनका आत्म-पाश निर्गम
 पथ अज्ञात गंतव्य अनिश्चित, पर छटपटाहट तो है अन्तःस्थल।  
कूप-पतित  कुछ भी न सूझे, शून्यावस्था में यूँ गोते लगाऊँ बस
अस्तित्व नितांत ही विस्मृत, किञ्चित ओझा सा स्व-मंत्र ही मस्त। 

क्या संदेश  दे रहा स्वयं को, या  निज कूपान्धता  का ही उक्ति 
पर जैसी स्थिति तथैव कथित, जो न उसकी क्या अतिश्योक्ति। 
प्रजाजन लुब्ध-प्रवृत्ति में, कुछ महापुरुषों का बस महिमा-मंडन 
पर क्या नर स्व की चरमावस्था हेतु है प्रयासरत व करते प्रयत्न। 

पर क्या मम प्रयास इन शून्य-क्षणों में, कलम-रेखाओं के अलावा 
क्या परिणति ऐसे  प्रयोग की, न किसी बाह्य-दीप्ति से बहलावा। 
उच्च-श्रेणी मन एक भाव ले चलते, कुछ सार तो लेते ही निकाल
    पर एक स्थल कोल्हू-बैल सा घूर्णन, देह-श्रम के अलावा न कुछ।   

इस शून्यावस्था के क्या अर्थ, कौन कोंपलें फूटेंगी विटप से इस 
इसे धूप-जल-मृदा अनुकूलन प्राप्त, शनै खिलेंगे ही  किसलय।
किसी भी स्थिति में आनंदमयी होना ही तो समरूपता सिखाता 
रोना-बिलखना त्याग मुनि सा चिंतनशील, खुलेंगे मार्ग स्वतः ही। 

कुछ आश्रम मौन-शून्यावस्था सिखलाते, विपश्यना जैसी विधि 
मनुज भूल सब विवादों को, एक शांत भाव में निवासार्थ युक्ति। 
सब चित्त-विचार तरंगें स्वतः शमित, तब फूटे है अनुपम ज्योति 
विभ्रम स्थिति से एकाग्रता ही भंग, सारी चेष्टा एक मूर्त हेतु ही। 

आत्म को करो व्यर्थ भार से मुक्त, ऊर्जा अपव्यय से उलझे मन
नित प्रयास हो मुक्ति-चिंतन का, व्यर्थ त्याग कराती प्रवेश परम। 
दुर्दिन का सुदिन में परिवर्तन, विमल चेष्टा-आकांक्षा से ही संभव 
आयोजन हो परम विकासार्थ, भ्रामक ग्रंथि खुलते ही मुक्ताभास। 

वे छुपे शब्द आते क्यों न समक्ष और कराते अपनी सदुपस्थिति 
ये ही तो हैं असली योद्धा, जीवन सुचारु रूप से चलाने हेतु भी। 
क्यों तब तव आदेश पालन न हो रहा व खुल न रही दिव्य-दृष्टि 
समाधान न प्रकट स्वतः ही, मन डोलता है बस इधर-उधर ही। 

एक ताल में महावृक्ष स्वप्नित, जल-तरंगें शाखा-पल्लव कंपित 
मेरा मन भी अतएव विव्हलित, कुछ भी प्रतिक्रिया न निर्मित। 
नितांत मैं  संज्ञाशून्य बन रहा, निस्पंद हो  निहारता सब कुछ 
अब नेत्र भी निमीलित हों रहें, कैसे निकलूँ उहोपोह स्थिति से। 

कैसा अधकचरा यह ज्ञान, अभिमन्यु सम प्रवेश तो चक्रव्यूह 
निर्गम दुष्कर, इस दशा से निकले तो अग्रिम विचार हो कुछ। 

या इसे ऐसे ही रहने दो मीरा बावरी सम,  कृष्ण-रंग में मस्त 
क्यों जरूरी निकास, जग मदहोशी हेतु  करता अनेक यत्न। 
जब बिन बाह्य-सहाय ही, प्राप्त हो रही  परम-आनंदानुभूति 
चिंता न और संबल की, सर्व  आवश्यकताऐं  पूर्ण हो रहीं।  

जगज्जञ्जाल से छूट स्वानंद  में, सर्वत्र हो रही  निर्मल-वर्षा 
विस्तृत आनंद का बस स्पंदन,  सर्वोच्च  समाधि अवस्था। 
जीवन-कला उत्थित स्वयमेव,  समृद्धि से  स्वतः ही मिलन 
 लुप्त रहूँ अनुपम  अनुभूति में,  विश्व पूर्व  भी था मेरे बिन।   

दीन-हीन तो असंभव, सीधा संपर्क शांत-सौम्यता से निज
वपु-क्षीणताऐं स्वतः  निर्मूलित, तन-मन  हैं  दोनों  स्वस्थ। 
पर क्या इससे कुछ ज्ञान होगा, अग्रिम   चरण भी  इससे 
कब आत्मसात, किस काल तक रह  सकता सम्यक में। 

विमुक्ति-अनुभव ईश्वर-अनुकंपा, न कोई उपलब्धि अल्प   
गौरान्वित हूँ इस प्रसाद से, बिना गर्वोन्माद के किन्तु नम्र। 
सब प्राणीभूत स्पंदन मुझमें,  सबसे प्रेम कोई विषाक्ति न 
मेरा अंश है सर्वत्र छितरित,  हूँ पुलकित विकास से इस। 

स्वप्न सी स्थिति, बस लेखनी ही कराती चेतना उपस्थिति 
अदीप्त हो रहे सर्व मन-द्वार, कहते कुछ देर रहो यूँ ही। 
प्राण मिला बड़-भाग से, हारना मत, गति से मिले सुयश 
बाधा स्वतः हटेंगी, कुटिल  सरल होंगे व सुजन -संगम। 

विकास-यात्रा अति दीर्घ, कुछ अतएव पड़ाव विश्राम-क्षण 
आवश्यक न नित दौड़-धूप में रहो, शांत हो करो निर्वहन। 
स्व-उत्थान उच्च-मनावस्था द्योतक, यदि प्राप्त तुम सुभागी 
सोपान मिलेंगे आरोहणार्थ, लक्ष्य अनुपम, रहो चेष्टाकांक्षी। 

एक और निर्मल अनुभव, धन्यवादी जो तू कराता सम्पर्क 
बस अभी यूँ डूबे रहने दो, यथासंभव करूँगा रसास्वादन। 


पवन कुमार,
२६ अप्रैल, २०२० समय ११:४७ बजे म० रा०  
(मेरी डायरी १९ मार्च, २०१६ शनिवार, समय ११:४० बजे पूर्वाह्न से )
   

Thursday, 16 April 2020

कवि-उदय

कवि-उदय 
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कैसे नर-उपजित कलाकार-कवि रूप में, प्रायः तो सामान्य ही 
देव-दानव वही, एक स्वीकार दूजे से भीत हो कोशिश दूरी की। 

यह क्या है जो अंतः पिंजर-पाशित, छटपटाता मुक्ति हेतु सतत 
मुक्ति स्व-घोषित सीमाऐं लाँघन से, कितनी दूर तक दृष्टि संभव? 
दूरियों से डरे, किनारे खड़े रहें, लोग आगे बढ़ते गए व दूर-गमन
आत्मसात की प्रबल आकांक्षा, मन को प्राप्ति हेतु करना तत्पर। 

एक महा-स्वोन्नति लक्ष्य, भौतिक-आध्यत्मिक एवं निज-व्याख्या 
उदधि-पार द्वीप-वृक्षों का दर्शन, पतवार चढ़ चक्कर लगा आना। 
वहाँ  स्थित वे प्रतीक्षा कर रहें, उठो तो प्रकृति-संसाधन दर्शनार्थ 
विपुल-साम्राज्य तव हेतु ही, घुमक्कड़ी-बेड़ा तैयार कर लो बस। 

कुलबुलाहट-क्षोभित, क्या व्यथा-कारण सुलगते अग्नि बनने हेतु 
अति ऊष्मा-ईंधन आवश्यकता, ज्वाला बन भी क्या लक्ष्य होगा? 
क्या महज स्व-हित ही चाहते, या पूर्ण-विश्व को भी दिखाना दिप्त 
त्रस्त-तमोमयी आत्मा बस जी रहीं, व्यर्थ प्रपंच फँस प्राण-व्यर्थ। 

पर प्रथम कर्त्तव्य तो स्व-त्राण, व्यवधानों से न हुआ व्यक्त निर्मल
जब दीप्त-कक्ष के कपाट बंद हों , कौन कुञ्जी  दिलाएगी प्रवेश?
अति-सूक्ष्म  द्रष्टा तो न हूँ माना, पर प्रयास कि हो एक कवि-जन्म 
बाल्मीकि तो क्रोञ्च-विरह अनुभूति से ही, निर्मल श्लोक उद्गीरत। 

कैसे व्यास सम नर, कहाँ छुपा अपरिमित ज्ञान व सामर्थ्य-कथन  
किस परिवेश-सान्निध्य से गणेश-गुहा प्रवेश, बैठ लिखे जाते ग्रंथ?  
जो सहायक पूर्णतार्थ, ललकारते भी, मूलतः निज ही अभिव्यक्ति 
बाह्य-निनाद  परे एकांत कारक-सामंजस्य, कामायनी सम कृति। 

विशेष प्रेरणा संग विटप प्रति आवश्यक, अंकुर-निर्माण तभी संभव 
प्रक्रिया उपनयनित शिक्षार्थ, कालोपरांत प्रबुद्ध भाव भी हो उत्पन्न।  
कुछ नित चयन-प्रक्रिया त्याज्य-त्याग, ग्रहणीयों के लब्धार्थ  प्रयास 
गुण-संकलित तो अभूतपूर्व ऊर्जा उदय, अनेक संग हित -सक्षम। 

जीवन प्राप्त भाग्य से ही, कुछ पदार्थ संग्रह करो मननार्थ चित्त-दान 
पर कितना प्रयुक्त सत्य-सार्थक, या व्यर्थ-अनर्गल ही गल्प-प्रलाप। 
विद्वद-उक्ति अथाह संभावना पुण्य-कृत्यों हेतु व सर्व-लोक कल्याण 
प्रवीणता इस अदने शख्स में भी, पर आवश्यक है अन्वेषण-उपाय। 

संसाधन यदि संयोजित, निपुण रचनात्मकता स्वतः ही अग्रचरणित 
ज्ञानी तो नित-अतंद्रित, विदित जीवन ही व्यापकता हेतु समर्पित। 
निर्मल-चित्त, विश्व-व्यापी, सबके प्रति न्याय-प्रेम व भाव प्रगति-पथ 
समय व्यर्थ एक मरण सी स्थिति, स्व को ललकारना लगता उत्तम। 

एक कवि आत्म-क्रांत दर्शन में समर्थ, सर्व-सौंदर्य मुखरण-त्वरित 
निष्पक्ष विश्व-दर्शन में सक्षम, अत्याचारों-कष्टों प्रति दयालु-नरम। 
एक उज्ज्वल सदा मन-देह में, विवेकी नीर-क्षीर भेदन में है सक्षम 
सरस्वती वाणी-निवासित, न्यून सम न नकार, अति अंतः-समृद्ध। 
  
इस चित्त-बुद्धि में सर्वस्व समा सकता, वृहद-वक्ष किधर से उत्पन्न 
अनेक विश्व-रहस्य विदित, गुह्य-जटिल तथ्य सुलभ हो होते समक्ष। 
वह है श्रेष्ठ नियम-धर्ता, पालन-कर्ता, करुणा-दृष्टि में सब एक सम 
पर बाह्य विश्व में कई भाट भी, जिनकी कवि-कृति मात्र निर्वाहार्थ। 

रचनात्मकता है आयामों में मनन-सामर्थ्य, निज ही से कुछ रचना 
 जब कृति विश्व-धरोहर तो कह सकोगे, मैं भी कुछ भागी-विपुलता। 
निज तो न कुछ सब प्रकृति-पूंजी, मात्र उपयोग करना सीख लिया 
तन-मन-धन सब उसी का उपहार, विजयी-गर्वशून्यता ही थाती। 

वह कवि तो अति-महान चरित्र घड़ लेता, अनेक गुणों का समावेश 
एक कथानक बुनने में समर्थ, कुछ प्रेरणा-मनन सदैव रहती साथ। 
निज-विस्मृति समर्थ चाहे कुछ काल ही, मात्र प्रयोजनों में ही लुप्त 
विद्या-निवासिनी संग, हर शब्द परीक्षित, वाक्यांशों पर और बल। 

मन-कवि कहाँ बसता, न निकसित, इस कलम का ही सत्य-संघर्ष 
उत्तम रचनार्थ तो सदा प्रयासी, पर कब संभव विधि को ही विदित? 
अवश्यमेव संकीर्णता-मुक्ति, क्रांतदर्शी मन करे शुरू बहुल दर्शन 
       निर्मल भाव अंततः होगा पर तावत प्रतीक्षा, जैसा संभव रहो चलित।       

कोई साहित्य-प्रशिक्षण तो न, स्व से ही कुछ ली शब्द-संकलन शिक्षा 
निस्संदेह कालि-व्यास-सूर-कबीर-शैक्सपीयर-प्रसाद सी तो न गूढ़ता। 
पर किञ्चित यह कुछ जीव उदितमान, अल्पाधिक निर्मल देगा ही रच 
सतत-अभ्यास इसकी भी सीढ़ी, कला-पारंगतता असीम धैर्य का नाम। 

माना आम मनुज न गूढ़ साहित्य-रसिक, पर दूरात तो स्तुति कर देता 
पर सत्य-कवि न यशाकांक्षी, वह स्व-विकार ही मर्दन करना चाहता। 
दूरगामी दृष्टि से नक्षत्रों के पार चरम ब्रह्माण्ड-छोर तक गंतुम-समर्थ 
एक अति-विशालता से सतत परिचय, प्रत्येक अंश से लगाव महद। 

एक आह सी मुख से निकलती, उत्तम न ज्ञात कैसे हो दुर्गम पथ पार 
संपूर्ण शक्ति इसी पर, सदा व्यक्त रहें निर्मल-सर्वकल्याणक उद्गार। 
कुछ परिवेश-स्वच्छता जिम्मा भी लेता, हर क्षण का प्रयोग समुचित 
सर्व दंभ निर्मूलित, साहसी भी कि सत्य-कथन में न तनिक झिझक। 

जिस दिवस हो यह अंतर्भय अंत, सर्व-मानवता हेतु उपजेगा करुण 
एक  कालखंड वासी को अमरत्व, पर न अतिश्योक्ति-आत्ममुग्ध। 
ऐसा साहित्य विश्व निजता-गर्व कर सके, क्या इस लेखनी से संभव 
संवेदनशील, समय-परीक्षा से परे, गागर में सागर समाना साहस। 

कुछ  निर्मल-हृदय योग हो इस वृहद अभियान में, कुछ हो सहायता 
प्रशंसा तो आ ही जाती, पर कोई उर से कृति स्वीकारे तो आए मज़ा। 
कुछ विवेचना हो, दोष भी निकाले जाऐं, ताकि व्यक्तित्व हो परिपक्व 
एक कवि-दार्शनिक  भाव मन में आए, तो जग-आगमन हो सार्थक। 

अद्य-प्रयास  स्वयं से परिचित होना, जिससे कुछ कवित्व हो प्रदर्शित 
  मम लेखन यदि  विस्तृत बन सके, मृदुल-भाव रचना हो  पाए रचित।  


पवन कुमार,
१६ अप्रैल, २०२० वीरवार, समय  ६:०१ बजे सुप्रभात 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० १७ मई, २०१९, शुक्रवार, समय ७:५५ बजे प्रातः से)