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Saturday, 15 March 2014

निवाला -मेरी कविता

निवाला  


कल पढ़ी थी एक अच्छी कविता, नाम है उसका 'निवाला'

कवि हैं श्री सरदार अली जाफरी, उन्होनें बहु-सार डाला॥

 

एक नन्हीं बच्ची की पीड़ा ही समझी, सहृदय कवि ने उस

भावुक होकर उसके भविष्य पर दृष्टिपात की है कोशिश।

माँ एक रेशम कारखाने में है, पिता सूती मिल में मुशर्रफ़ है

नयी जन्मी बच्ची, रहने हेतु काली खोली में अकेली पड़ी है॥

 

कवि पूछता है कि क्या होगा बच्ची का, जब वह बड़ी होगी

फैक्ट्री- वर्कर बनेगी, भूख सरमायेदारों की भूख बढ़ाएगी।

पाँव दौड़ेंगे, हाथ-दिमाग काम करेंगे और सोना पैदा करेंगे

मालिक की बैंक- तिजौरी भारी, घर में और रोशनी होगी॥

 

पूछता कि कोई है, जो बच्ची को निवाला बनने से हटा देगा

कवि के माध्यम से बच्ची पूछती, क्या कोई सहानुभूति वाला?

उसके पूर्ण मानव बनने हेतु, हक़ दिलवाने में करेगा मदद?

पर कितने हैं जो मदद हेतु आगे आऐंगे -क्या तुम हो स्वयं?



पवन कुमार,
15 मार्च, 2014 समय 8.05 सायं 
(मेरी डायरी 19. 01. 2000 से)

शून्य-अवलोकन एवं सुझाव



शून्य-अवलोकन एवं सुझाव 


यह नितांत खाली सा समय है, छटपटाता हूँ

स्वयं का सामना करने में कुछ कतराता हूँ॥

 

मैंने इस 'जीवन' का, क्या से क्या बना लिया

बढ़ना जो था प्रगति-पथ, शिथिल कर दिया।

विचार जो होने चाहिए, एक यौवनमय उमंग

मैंने एक तंद्रित-स्थूल, मंद-बुद्धि में ला दिया॥

 

क्या इतना आसान है, स्वयं की खोज करना

और क्यों व्यर्थ ही, निरुद्देश्य बीतता हूँ जाता?

क्यों अंतः-आंदोलन, स्वयं पर विजय न करते

उनमें से तो कुछ ठोस बात निकलनी चाहिए॥

 

'आंदोलन' है भी या नहीं, सभी कुछ अज्ञात सा

ऐसी बातें करते ही, अमूल्य समय है निकला।

राह तो बन ही न पाई, लक्ष्य भी है अचिन्हित

तो क्या यह जीवन नाम, संज्ञा-शून्य है केवल?

 

तो फिर क्या यह 'जीवन-विचार' होना चाहिए

'जीवन' क्यों-कैसे-कब-कहाँ पथ होना चाहिए।

थोड़ा-बहुत क़ुछ पढ़ा, हूँ मूढ़ बावजूद उसके

जीवन एक मिसाल, स्वयं-सिद्धा होना चाहिए॥

 

अपने इस अंतः 'आत्म' की तो पहचान करनी है

इसकी खोज ही तो, प्रथम प्राथमिकता चाहिए।

किंतु चिंतन ही न करता, एवं शीघ्र थक हूँ जाता

विश्व के ज्ञानी-पुरुषों से भी, शिक्षा नहीं ले पाता॥

 

विवेकानंद कहते, स्वयं को निर्बल समझना तो

वीरता न हो सकती, पर क्या बिना समझे स्वयं

क्या नहीं यह एक व्यर्थ गर्व-अतिश्योक्ति बस?

मैं तो खुद को अभी दुर्बल-मंद प्राणी हूँ मानता

जो इस दुनिया की भूल-भलैया में खो सा गया॥

 

क्या स्वयं का रिक्तता ज्ञान व ग्राह्य-शैली बनाना

क्या न देता, जन्म नव-सम्भावनाओं की रचना?

जब खाली होते, तो पूर्णता स्वयमेव आने लगाती

क्योंकि गति बस पूर्ण से न्यूनता की ओर होती॥

 

तो जब खाली हूँ, सकल गुण मुझमें आने लगेंगे

पर 'सेफ्टी -वाल्व' तो लगें, अवाँछित-रोध हेतु।

तभी मेरी व सबकी प्रगति, उत्तम दिशा में संभव

तब न कोई दिग्भ्रांति होगी, न ही शोक अंतः॥

 

क्या विद्युत् मस्तिष्क-तरंगें हैं, व उनका उद्देश्य

अगर उनमें कुछ उत्तम भी, तो गतिमान क्यों न ?

यदि चलायमान भी, तो मुझमें क्यों नहीं चेतना वह

'पूर्ण-चेतना' ज्ञान ही शायद, है जीवन-मूल परम॥

 

थॉमस एडीसन लिखते हैं कि उन्होंने व साथियों ने

छः वर्ष सप्ताह में ७ दिन, १८ घंटे रोज कार्य किया।

शुरू में थकान थी, किंतु नर नींद को ४-५ घंटे तक

सीमित कर सकता है, क्षमता नहीं होती कोई क्षीण।

किंतु उस हेतु प्रबल विचार- शक्ति, आत्म- विश्वास,

संयम व एक उत्तम लक्ष्य की आवश्यकता होती है॥

 

एक अर्जुन-नाम 'गुडाकेश', अर्थ है जीना बिना नींद

'लक्ष्मण' के विषय में ज्ञात, वे १४ वर्ष तक सोए ही न।

 

तब ऐसी क्या ग्रंथि, जो तुम्हें अग्रसर होने से है रोकती

प्रथम स्व-विश्वास करो, तब न कोई आवश्यकता भी॥



पवन कुमार,
15 मार्च, 2014 (म० रा० 12 बजकर 38 मिनट )
(मेरी डायरी दिनाँक 22.03.1998 से)   

Thursday, 13 March 2014

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन 


आज मुझे लगा कि मुक्ति का ग्राहक बन जाऊँगा। मन में बहुत बड़ा डर,  आश्चर्य एवं अनुभव हुआ कि मैं भी और प्राणियों की भांति क्षणभंगुर हूँ, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा। लोग शायद मेरे लिए भी कुछ देर इकट्ठा होंगे और फिर थोड़ी देर बाद अपने -२ व्यापार में लग जायेंगे। किसको कितना वक्त है किसी के लिए रोने के लिए और योग्य चाहे कितना ही हों। जमाना जिसके लिए रोता है वह शायद सबसे भाग्यवान होता है। तुम धरती पर बोझ बढ़ाते हुए, अपने कुविचारों से वातावरण को दूषित करने का यंत्र ही तो हो, जिसकी रोकथाम जग को एक त्रासदी से बचाने के लिए आवश्यक है। मैं फिर जब मर ही चुका हूँ तो यह जीवन कैसा है? क्या यह भ्रम है या फिर स्रष्टा द्वारा जग में भेजा गया एक यंत्र और जैसा वह चाहता है, अच्छा -बुरा कराता है। मैं शायद निकृष्ट प्राणी हूँ जिसको शायद अपने ही भले -बुरे के विषय में पता ही नहीं है और फिर वह सारे जग या विश्व के विषय में क्या सोचेगा। 

मुक्ति क्या है बस यूँ कहो कि जग से एक -२ बंधन टूटता सा जा रहा है। एक नीड़ में अंडा था, बच्चा बना, पर लगे और उड़ गया। और स्थिति देखो कि आज नीड़ कोई ध्यान नहीं है और अभिमान कि बस मेरे पास पंख है, मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे पास यौवन है, मेरे पास धन है, मेरे पास औरों से विकसित बुद्धिमान मन है। फिर मुझे किसी की क्या चिंता है। क्या मेरे पास सेवा करने के लिए अपना जीवन कम है, मुझे दूसरों से क्या लेना-देना। मेरे लिए शायद यही परम सच्चाई है। मैं तो बहुत बड़ा विद्वान बन चुका हूँ फिर क्यों न हूँ मैंने थोड़ी बहुत पुस्तकें खरीद जो ली हैं और उनमें से कुछ के कुछ सफे पढ़ लिए है और शायद बहुत बुद्धिमान भी हूँ। वे अन्य अगर मुझ जैसे बुद्धिमान से पथ-प्रदर्शित नहीं होना चाहते तो यह उनकी मूर्खता ही तो है। वाह रे मेरे स्वार्थी तत्व, क्या खूब मुक्ति पाई है तूने? तूने तो सारी सभ्यता या यूँ कहे सारी सृष्टि के नियम भुला दिए। मानव अपने आप को सबसे अधिक बुद्धिमान कहलाने में गौरव अनुभव करता है पर वह कुत्ते की स्वामिभक्ति को भी भूल गया जो कर्त्तव्य के लिए जान भी दे दें। फिर तू भी तो तथाकथित मानव ही है।  

हर समय  खुद से डरा सा रहते हो फिर भी अपने को साहसी बताते हो, यह कैसी विडम्बना है। हर समय रोते रहते हो और अपने को सुखी अनुभव करते हो। ईश्वर के द्वारा संचलित यंत्र होने के बावजूद भी तुम आरोह-अवरोह के क्रम में फँसे हुए हो और फिर जीवन को बना ही क्या दिया है। और शायद इस जीवन से मौत ही अच्छी है और यही शायद मुक्ति है। क्या जीव की यही नियति है कि वह केवल रोए और कदाचित् भी परम सुख का अनुभव न कर पाये। हम जग की माया में किस कदर फँसें  हुऐं हैं कि हमें पता ही नहीं कि क्या हमारा रास्ता है। बस चले जा रहें हैं अन्धे की तरह। ठोकरें खाकर जैसे ही सम्भलतें हैं दूसरी ठोकर लगती है, लहू-लुहान हो जाते हैं और शायद इसी तदनन्तर चलने की शक्ति भी नहीं रहती। पर सुना है कि किसी इन्द्रि की अनुपस्थिति में दूसरी ज्ञानेन्द्रिय सक्रिय हो जाती है। मेरे लिए शायद वह भी उपलब्ध नहीं है नहीं तो और फिर क्यों रोना ही मेरे दैव में बदा है और क्यों नहीं मुझमें मुकद्दर के सिकंदर वाले हँसने के क्षण देखने को मिलते। क्यों नहीं मैं भी औरों के दर्द को अपने हृदय के निकट अनुभव करता और वे भी, मैँ चाहे जैसा भी हूँ, मुझे स्वीकार करते। पर जीवन बड़ी -२ परीक्षाएं लेता है और प्राणियों को अपने अनुसार चलाता है।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'कायाकल्प' में वज्रधर सिंह अपने को हर स्थिति में सहज रखने का यत्न करते हैं लेकिन उन्हीं का बेटा चक्रधर जीवन की छोटी-२ बारीकियों से भी अत्यंत विचलित हो जाता है। वह सन्यास ले लेता है, राह चलते लोगों की सेवा में अपना जीवन लगाता और शायद जीवन को कुछ समझने में सफल होता है। लियो टॉलस्टॉय भी 'मेरी मुक्ति की कहानी' में शायद जीवन के परम तत्व को समझने के लिए एक आम आदमी के पास जाकर सार को समझने में सफल हुए प्रतीत होते हैं। सत्यतः चहुँ ओर अंतर्द्वंद्व है, उन्हें कोई हटा नहीं सकता परन्तु उनका हल यहीं अपने आसपास ही ढूंढना है। फिर मानव तो ईश्वर की कठपुतली है पर शायद थोड़ी स्वतंत्रता के साथ, जिससे वह अपना और दूसरों का जीवन भी सफल बन सके। 

पर मैं यदि पढ़ा लिखा हूँ तो क्या मुझे लोगों की मानसिकता नहीं पढ़नी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं। क्या मुझे प्रयोग नहीं करने चाहिए कि कैसे उनमें से अच्छे सा अच्छा निकाल सकता हूँ। पर उससे भी अधिक क्या मुझे अपने जीवन को सुघड़ बनाने के लिए अपने ऊपर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्या मेरे सोचने, कार्य करने के ढंग में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है ? क्योंकि तुम अपने जीवन से शायद इसीलिए घृणा करते हो कि तुम्हें यह पद्धति पसंद नहीं है। फिर वह जीना ही क्या जिसमे से जीने की सुगंध न आये। 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर' - ऐसी  तरक्की, ऐसी ऊँचाईं की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए जो अपनों को अपने से काट दे। मेरे अंदर इतनी आदमियत होनी चाहिए कि मैं छोटे से छोटे दिखने प्राणी से भी बात कर सकूँ। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता 'ऊंचाई' की कुछ लाइनों का सार याद आता है कि यदि ऊँचाई अपने को दूसरों से अलग करती है तो ऐसी ऊँचाई वाँछनीय नहीं है। जीवन वही है जो औरों के काम आता है। अपने जीवन को महकाने का अर्थ औरों के जीवन को महकाने के बाद ही समझ आता है। दीपक को प्रकाश के लिए खुद जलना पड़ता है। तुम अगर सूरज नहीं बन सकते तो कम से कम  जुगनूँ  ही बन जाओ, शायद तुम्हारा कुछ देर का टिमटिमाना तुम्हारे जीवन को धन्य कर सकें। जीवन की मुक्ति का यही रहस्य है कि अपने अंदर के व्यर्थ को भस्मित करों, सभी को अपने अंदर शरण दो। एक हरियाणवी रागिनी याद आती है कि 'कोयल किसी को क्या देती है और कौआ क्या उठा लेता है, केवल एक बोली के कारण वह सारा जग बस में कर लेती है'। एक हिंदी फ़िल्म का गाना भी है कि 'सारा जग अपना हो सकता है, तूने अपनाया ही नहीं' परन्तु जब तुम्हारे मन, हृदय के कपाट बंद हैं तो कोई कैसे प्रवेश कर सकता है ?

'प्रेम' बहुत बड़ा शब्द है। आलोचना छोडो, गुणों का आदर करों। आलोचना से तुम अपनों को भी शत्रु बना लेते हो और प्रेम के कारण तुम शत्रु को भी मित्र बना सकते हों। तुम्हें अपने सद्-व्यवहार से सबको जीतना है। हालाँकि तुम कोई निर्जीव नहीं हों कि तुम्हारे ऊपर अच्छाई-बुराई का असर न पड़े फिर भी बस ध्यान रखो कि तुम औकात से बाहर न जाओ। तुम अपने नीड़ को छोड़ भी चुके हो तो क्या, अपनों से क्षमा माँगों। वे इतने निर्दयी भी नहीं हैं कि तुम्हें माफ़ न कर सकें और इतने बेवकूफ भी नहीं है कि प्यार की भाषा न समझ सकें। बस तुम्हारे कदम उठाने भर की देर है, वे तुमको बाह पसारे खड़े मिलेंगें। 'आजा रे प्यार पुकारे, तुझको पुकारे देश तेरा।' जीवन के ढंग बहुत विचित्र हैं- रुलाता है तो हँसाता भी है लेकिन प्यार के रोने में शायद मुस्कान भी खिलेगी, ऐसा मेरा मानना होना चाहिए।  


पवन कुमार 
12  मार्च, 2014 (म० रा० 1 बजे )
(मेरी डायरी से -दि० 22.04.1998 म० रा० 1 बजे )

Tuesday, 11 March 2014

गुण के ग्राहक


गुण के ग्राहक


कुछ झूमूँ, नाचूँ- गाऊँ, मन अपना मैं बहलाऊँ

प्रभु को पास समझकर, दिल अपना हल्काऊँ॥

 

मन में हो सब हेतु आदर, न कोई ऊँचा-नीचा

काम करे जो भी अच्छा, वही हो सबसे सच्चा।

जिसके मन में हो सच्चाई, वही हो सबका मीत

ऐसे मनुज से सब करते हैं, मन में सच्ची प्रीत॥

 

गुण-ग्राहक बन जाओ, वृक्षों सम झुक जाओगे

संगति जैसी तुम पालोगे, वैसे ही बन जाओगे।

आँखें बहुत उठी लिए तुम्हारे, उनके बन जाओ

ले लो उनको बाहों में, मृदुल मन महकाओ॥

 

दो आशा सबको, और स्वयं भी आशावान बनो

समाधिपद में रहो सदैव, और चरित्रवान बनो।

बुद्ध-नानक- महावीर बनो, व बनो बापू गांधी

बनो भीम -युधिष्ठिर, और बनो शिव के नांदी॥

 

दुनिया तो सदैव वैसी ही है, जैसी तुम चाहते हो

होगा विशाल कोष, यदि उत्तम कर सकते हो।

सोचना अच्छा-बुरा तुम, धार अपनी पहचानना

आत्म-विश्वास करके तुम, राह अपनी सँवारना॥



पवन कुमार, 
11 मार्च, 2014  
(साभार डायरी से - दि० 23.03.1998 समय 1.10 बजे म० रा० )  

Saturday, 8 March 2014

अन्तर भ्रमण

अन्तर भ्रमण 


एक कोशिश की कोशिश करो, शायद कुछ पा लोगे

बस एक सोच को ठीक करो, तो बड़े सार्थक होवोगे॥

 

लोगों ने एक ठीक कदम उठाया, पहुँचे हैं मुकाम बड़े

आलसी तो बस भ्रमित, चलने से कहीं भटक न जाए।

जीवन-उपलब्धि प्राप्त, समय पर अवसर पहचानने में

यदि साथ हो लिए तो, अवश्यमेव पार हो जाएगी नैया॥

 

कैसे अपने निज वृहद को बाहर लाऊँ, प्रश्न विशाल है

मस्तिष्क के छोटे कोने में, स्व को सकुचा ही लिया है।

अब तक मेरा आत्म से ही, जानकारी- परिचय न हुआ

तो अन्यों से क्या-कैसे-क्यों, बहुत संपर्क बना पाऊँगा॥

 

मेरा मन-स्वामी अंदर है, और मुलाकात तो हो न सकी

बहुत कम ही निखरा यह स्व, अपराध शायद मेरा ही।

किस विधि से बतिया सकूँ खुद से, पथ कुछ पता नहीं

कोई गुरु भी तो नहीं बनाया, जो कुछ समझा सके ही॥

 

स्वयं में निपट अज्ञानी हूँ, औरों का सहारा भी नहीं लेता

इतना आलस्य-लिप्त हूँ, कि साहस ही नहीं उठने का।

अपना हृदय पूरा ख़ाली पाया, या अवाँछितों से ही भरा

और कुछ भी अपने अन्दर, ललित जाने नहीं है दे रहा॥

 

सत्यम शिवम सुंदरम का तो, कभी ध्यान नहीं हो पाया

किया भी कभी तो, कुछ अधिक अहसास हो न सका।

अतः अपक्व ही कहता खुद को, पूर्णता-अलब्ध क्योंकि

क्या व कैसे आगे ही होगा, इसका भी पता है तो नहीं॥

 

फिर जीवन तो न सिर्फ साँस लेना, और चलना-फिरना

या बस खाना-सोना ही, या इसका कहीं गूढ़तर मायना।

किंतु कुछ सोच तो रही होगी, इसके रचनाकार की भी

अब कुछ रास्ता सुझाने की, जिम्मेवारी भी तो उसी की॥

 

ऊपर से मुस्कुराता हूँ, किंतु मन तो है मात्र संज्ञा शून्य

किंतु अब अंतः को कैसे पूर्ण प्रकट हो, विशाल है प्रश्न।

कर्मठ-महापुरुषों के कुछ नाम तो सज्जन लिया करते

परंतु उनसे भी कोई मेरा परिचय, बड़ा ज्यादा नहीं है॥

 

खाली दिन में तो खाली बातें, और खाली ही है अहसास

किंतु यह अति-क्षुधा ही तो, कुछ देगी जिज्ञासा-ढ़ाढ़स।

निज को फिर सक्षम बनाने हेतु, देगी यही कुछ सबक़

कुछ वर्ष समय बिताने का, मस्तिष्क को देगी अनुभव॥

 

मैं कहाँ जाऊँ, क्या सोचूँ, और क्या-कैसे शुरू करूँ ही

प्रश्न अति कठिन है, क्योंकि सुस्ती तो है मेरे अंदर ही।

अनेक लोगों ने थोड़े समय में ही, अति-महद कर लिया

और मैं एक सदा जो आत्म को, बस असहज ही पाता॥

 

कल मीटिंग में एक बिंदु था, सीखो निज-सम्मान करना

बात ठीक पर अहम पहलू, हम आदर-योग्य ही हैं क्या?

क्या वह मृदुल भाव जो, सबके सम्मान की बात है करता

उसके शुभ्र-आविर्भाव पर तो, स्वयं ही समझ जाऊँगा॥

 

फिर यह जीवन-सार ही कैसा, और मैं सत्यमेव हूँ क्या

भौतिक अवस्था से अधिक भी, मेरा अस्तित्व ही क्या ?

कब चार लोगों में खड़ा होकर, निज बात कह पाऊँगा

या अन्य -कथा सुनने में ही, एक प्रौढ़वय हो जाऊँगा॥

 

बात यह भी नहीं कि, उचित संदर्भ में विषय जानता न

पर कभी विषय समुचित ढ़ंग से प्रस्तुत न पाता हूँ कर।

यदा-कदा स्थिति ऐसी बनती है, पूर्ण कह नहीं पाता ही

यह अन्य कारण दूजों को असहजता से बचाने हेतु भी॥

 

परस्पर आदर भी जरुरी है, निवास हेतु सभ्य समाज में

यह सब पर लागू है, पर इशारा तो समझ लेना चाहिए।

आवश्यक नहीं किसी को, यूँ ही बस असहज बना देना

क्योंकि तुम्हारे साथ भी ऐसा, कहीं कभी है हो सकता॥

 

सतत प्रयास करो उत्थान का, यही तो आगे ले जाएगा

भ्रम में मत रहो, और अपनी आँखों से तो हटा दो पर्दा।

क्योंकि यही है उपाय, एवं उचित दर्शन का देगा साहस

तब इस हीरक आत्म को, दे सकोगे एक मृदुल सुनाम॥

 

यह भी तुम्हारी उसी, एक कोशिश का सुपरिणाम होगा

जो अद्यतन सब अनछुए पहलू का, अहसास कराएगा॥



पवन कुमार,

8 मार्च, 2014 
(लेखन - दि० ०३ मार्च. २०१०)   



Saturday, 1 March 2014

वीरता

 वीरता 


वो सत्य-कर्मयोद्धा हैं, जो लेखनी महद लक्ष्य हेतु चलाते

सतत रत हैं दुर्गम राहों पर अकेले, विवेचन करते हुए॥

 

जीवन उन हेतु सदा चलने वाला ही न एक माध्यम मात्र

अपितु बारीकियों में जाकर, उनको पहचानने का प्रयास।

खुली आँखों से देखते हैं, कि कहाँ-क्या-क्यों हो रहा कैसे

और निज समझ से नवरूप प्रवाह देने का यत्न हैं करते॥

 

मात्र दर्शक न, अपितु निरपेक्ष भाव से दायित्व हैं समझते

अन्य ही इस हेतु उत्तरदायी न, पर वे भी मूक समर्थक हैं।

और फिर खड़े होते समझ हेतु, लेकर कुशाग्र बुद्धि-अस्त्र

कुछ कर्मठ कलम-लेख से, जग समझने का करते यत्न॥

 

वे वीर अंतर्द्वंद्वों से बाहर निकल, एक विशाल हेतु समर्पित

बैठकर मौन निज में, अंतः के विकास हेतु रहते अग्रसर।

सदा देखते व्योम-महासागर को, व विस्तृतता वसुधा की

व निज को अंश पाते, उसी विराट-ब्रह्मांड स्वरुप का ही॥

 

उन हेतु जग एक स्व कुटुंब ही, उसमें सहयोग करते सदा

सकल विद्यमान चराचर से, उनका सहृदय-अपनत्व होता।

फिर मन-मौजी हैं स्व भाँति के, विचरने हेतु समस्त दिशाऐं

और स्वछंद, बुद्धि-तर्क द्वारा, विशाल तंत्र समझने के लिए॥

 

वे राष्ट्र-सीमा प्रहरी-समर्पित, इसकी रक्षार्थ बाह्य-आतंरिक

व सतत उनकी दृष्टि है, परम-सत्य व सर्वहित ओर स्थित।

कटिबद्ध हैं निज-कर्त्तव्यों में, सजग उनका निर्वाह करने में

आत्म-अनुशासन शैली साधते जीवन में, अन्य भी लाभ में॥

 

उन्हें चाह न अपने लिए, वरन विस्तृत के प्रति वे हैं समर्पित

उनका हर एक श्वास, महाजीवन का उपकार है उन पर।

वे एकनिष्ठ हैं, पूर्ण जीवन-भाव को समाहित करने स्वयं में

व सदा गतिमान हैं निज ही धुन में, अथाह मुहब्बत लिए॥

 

लेखन उनका एक लक्ष्य हेतु, छपछपाहट-व्याकुलता लिए

वे उद्विग्न-व्यग्र, क्यों स्वयं को पूर्ण परिभाषित न कर सके?

बाह्य जगत में किञ्चित वे, बहु-संपर्क न बनाते हों लोगों से

पर अंदर से तो नित लोक-कल्याण ही सोचा किया करते॥

 

प्रतिबद्धताऐं हैं स्वयं से ऊपर, कई मायनो में समझ से परे

पर वे नित कटिबद्ध रहते हैं, अपनी चेष्टाऐं बढ़ाने के लिए।

उन हेतु अबतक का जीवन तो, एक प्रक्रिया-स्वरुप है मात्र

और वे आज जो जैसे भी, उन सब पूर्ववर्तों का ही तो सार॥

 

एक अनुकूल परिवेश निर्माण को तत्पर, सबके सहयोग से

वे सदा देखा करते हैं, अपनी उस पूर्णता की ओर चेतन से।

सदैव सर्वहित ही उनका मनन, व क्या कर्म-संभव हेतु उन

अंतर्मुख संग वे बहिर्मुख भी, अकर्मण्यता है अति असहज॥

 

वे वीर धन्य जिन्हें निज प्रतिबद्धता-बोध, और जो हैं प्रेरित

सदा वसुधा-पटल पर, सार्थक होने का किया करते प्रयत्न।

स्वयं प्रति उच्च-कटिबद्धताऐं, उन्हें निट्ठला बैठने नहीं देती

उनको निज विकार-कुवासनाऐं, अभिशाप ही लगा करती॥

 

वे धीर-वीर हैं, क्योंकि सदा सत्य का निर्वाह किया हैं करते

यूँ ही व्यर्थ-संवाद न करते, वरन पूर्व मनन किया करते हैं।

माना कुछ बहु-शब्द धनी नहीं, व चयन भी सटीक न चाहे

तथापि वस्तु-भाव के समीप, पहुँचने का यत्न किया करते॥

 

आजीवन शिष्य-शिक्षार्थी होकर भी, व भला जानते हैं अपूर्ण

इस ज्ञान से भी परिचित, और जीवन अति-क्षुद्र, क्षण-भंगुर।

इस सकल जीवन-परिसीमा को, भली-भाँति जानते भी हुए

जग को अपनी ओर से सदा, कुछ देने का ही यत्न करते हैं॥

 

मुस्कुरातें व कभी व्याकुल भी, पर नित्य हैं संभावना-पूरित

विश्वास दान-समर्थ, जगत थोड़ा और सम बनाने का प्रयत्न।

वे धीर हैं इसीलिए तो, इतना अनर्थ चलते हुए भी सह जाते

शायद स्व को तैयार करते, कैसे-किससे सामना करना है॥

 

उनकी कुलबुलाहट व्याकुल करती, निज-रुप पहचान हेतु

सदा तल्लीन वृहद-लक्ष्यों में, उनके तत्वों को समझने हेतु।

व्यर्थ तर्क-आवर्जनाओं से, स्व से दूर रखने का करते प्रयत्न

 एक निर्मोही-सात्विक भाँति ही जग का, किया करते दर्शन॥

 

निज पाश-ज्ञान, इनसे विमुक्ति की युक्ति का भी उन्हें ध्यान

त्याग सब प्रपंच-कल्मष वे, परम स्व-सिद्धि हेतु हैं विद्यमान।

सबल हैं तभी तो शायद, निज कष्ट-दुर्बलता वर्जन पाते कर

युक्त अनुपम चेतन मन से, सब उचित कर देता है प्रस्तुत॥

 

उनका बौद्धिक आवरण-परिदृश्य व वर्तमान भी न महार्थक

बाह्य-बाधा बेड़ी न होकर, विपुल सबलीकरण हेतु है प्रेरक।

उन्हें न चाह मात्र है, सुन्दर वन-कुसुमों के ही घ्राण करने की

अपितु विघ्न-कष्ट-कंटकों के सामीप्य में प्रसन्न रहा करते भी॥

 

हाँ अपने सर्वत्र-कल्याण हेतु, पूर्ण सामर्थ्य से प्रयत्न हैं करते

उससे भी अधिक प्राथमिकता, उनकी विश्व -व्यापकता है।

कभी न अपने को, असहाय-अनाथ-निर्बल-पंगु ही समझते

क्योंकि इस सर्व जगत-सम्पदा के, वे स्वयं ही तो स्वामी हैं॥

 

जब अति समृद्धि सर्वत्र निहित, तो अभाव-वजूद नहीं कोई

वे ले सकते हैं उस सकल को, परन्तु उन्हें कोई लोभ नहीं।

इन कंकड़ -पत्थरों में न रहकर, शिव भाँति भस्म हैं रमाते

अमृत जग को देकर, स्वयं हलाहल पी नीलकंठ बन जाते॥

 

वे परम धनी हैं इस जग में, जिन्होंने अपना स्वयं पहचाना

सब सच्चे धन तो स्व-निहित ही, बाहर तो मृग-मरीचिका।

न चाह हैं उन्हें दूजे के धन की, लोलुप नहीं इस दुनिया में

सदा चलते अपने पथ, जो मिले उसी में संतुष्ट रहा करते॥

 

'अली बाबा चालीस चोर' की वैभव भरी गुफा ही तो दुनिया

जितना चाहे उठा ले, किंतु बाहर कपाट बंद करते हुआ।

सिर्फ हीरे-मोती, स्वर्ण-जवाहर से ही तो पेट-पूर्ति न संभव

उस हेतु खाने-पीने की आवश्यकता हुआ करती अधिक॥

 

परन्तु यह भाव सब दौलत निज, समग्र रूप दिया करती

और यह आत्म-मुग्ध व विश्व-नागरिक होने हेतु है काफी।

फिर सीमाऐं भी सबकी यहाँ, उठाने-पचाने व समाने की

क्योंकि अधिक खाने से तो, ख़राब हुआ करता पेट ही॥

 

फिर इतना कुछ चहुँ ओर, व अधिक भी जा सकता लिया

पर निज सामर्थ्य-अनुसार ही, अर्जित एक कर है सकता।

उर-विशालता कहीं अधिक धनी बनने की राह है खोलती

किंचित भी साधन-अभावता, वीर-चित्त न दुखाया करती॥

 

वीर कलम -धनी हैं, सकल वैभवों से सदा आभूषित रहते

व्यर्थ प्रपंच न में रह, अपनी राम-धुन में ही वे रमा करते।

असीम-वासी, परम में डुबकी लगाते, निर्मोही हुआ करते

पर निज-महत्ता संग, सदा औरों को भी उच्च ही आँकते॥

 

परिमार्जित करते स्वयं को सदा, उत्कृष्टता ओर अग्रसर

नित मनन व लेखन से, कुछ श्रेष्ठ कराने का करते प्रयत्न।

भले ही शब्द-जाल में न फँसते, दुर्बलताओं का अहसास

मन में एक पवित्र भाव है, सबका करने हेतु ही कल्याण॥

 

जीवन को धरोहर मान, इसके मान की रक्षा का करते यत्न

कभी न रुकते, न तन्द्रा ग्रसित, न व्यर्थ साँसतों का संसर्ग।

वे सदा दृढ़-ऊर्जावान रहते, और अपने को वेगवान रखते

जीवन अल्प व कृत्य अधिक, अतः यथासंभव प्रयास करते॥

 

स्वरुप साक्षात परब्रह्म के, जो उनके माध्यम से परिभाषित

सदा डूबे से निर्मल-चिंतन, कुछ समुचित कर जाते प्रबंधन।

रहें सर्वोत्तम के साथी, और उसके उद्देश्यों में सहायक होते

सदा सर्वत्र समर्पित अपने- श्रेष्ठ को, अधिक सार्थक बनाते॥

 

अतः उठाओ लेखनी, करने पूर्ण परम की अनुभूति स्वयं में

फिर भेद नहीं, तुममें-ईश्वर व तुच्छ ही मानी जाती रज में॥



  पवन कुमार,
   1 मार्च, 2014