Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 26 October 2014

सफल जागरण

सफल जागरण 


दिन निकला और सुबह हुई, मन मेरा उन्मत्त हुआ

कैसे बेहतर बने सब कुछ, विचारने का मन हुआ॥

 

मेरी खूबसूरतियों की स्मृति, इस पल में हुई है प्रखर

उजला-उजला विभोर, प्रफुल्लता चहुँ ओर स्फुटित।

शब्द-समृद्धि व अपरिमित-आकांक्षा, सब ओर बिछीं

मैं उठ बैठा फिर खड़ा हुआ, सब पर्यन्त मुखर हुई॥

 

मैं उन्मादित-हर्षित मन में, यह जीवन का उजला पक्ष

विचारक-चिंतक मौलिक, और सब है संवाद सबक।

मेरी लघु-परिमिता विस्तृत हुई, ज्ञान चक्षु हुए हैं प्रखर

बहु-समृद्ध, विशाल-असीमित, नभ-तारक गण मुखर॥

 

मेरी व्याधियाँ-अतृप्तियाँ, संकुचन सब भाग से हैं गए

मैं बना सम्पूर्ण और ये पल, परब्रह्म से सम्पर्क किए।

मेरी शैली-रचना, मेरा मतवाला बौद्धिक चिंतक मन

मेरी विद्या-पुस्तकें-ज्ञान, सब कुछ तो हुए प्रज्वलित॥

 

मैंने तजी कुचेष्टाऐं, व दया-शुचिता को आमुख हुआ

व्यर्थ-संवाद छोड़, सबल-समर्थ-सार्थक ओर हूँ बढ़ा।

मैं बना वास्तुकार स्वयं का, भले ही विचार बाह्य कुछ

किंतु इस समक्ष पल में तो, स्व में ही फलीभूत बस॥

 

शायद मनुष्यत्व पा हूँ गया, एवं आत्म को जान गया

अपनी व्यर्थताओं को भुला, सुपक्षों ओर इंगित हुआ।

मैं जागा, जगत जागा, और समाधान हो गए सारे प्रश्न

सौभाग्यशाली बना स्वयं को, बढ़ा दूँगा अपने प्रयत्न॥

 

मन में उठी हिल्लोरें मेरी, मन कुछ हुआ है वयस्क

वर्धन उस ओर जहाँ, सीमाऐं हुई हैं समाप्त सकल।

सब मेरे और मैं सबका, कोई भी नहीं है विरोध-द्वेष

बना हूँ स्वयं का संगी, और सब ओर खड़े हैं प्रेरक॥

 

माना मन में ही निज, मनोरमा विस्तृत आगे कितनी

करूँ रसास्वादन मैं उनका, सब कुछ लिए मेरे ही।

जागा इस भाँति से हूँ, सर्वस्व ही अपना हो सा गया

मैं उठ खड़ा तन्द्रा से, बहु-विचित्रता से रिश्ता बढ़ा॥

 

मेरे सब डर दूर भाग गए हैं, और मैं जितेन्द्रिय बना

महावीर मेरा तन-मन, व सबलता का है पक्ष बढ़ा।

मोह हटा मम दुर्बलताओं से, अधमता क्षीण हुई सब

और मैं बना परम का साधक, अरिहंत से बढ़ा प्रेम॥



पवन कुमार,
26 अक्टूबर, 2014 समय 15:26 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 11 अगस्त, 2014 समय 07:00 प्रातः से )

Thursday, 23 October 2014

उज्ज्वल-पक्ष

उज्ज्वल-पक्ष 


कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते, जब वे भी हैं हाड़-माँस के

कैसे स्थापित प्रयत्नों में, बहुत अधिक दूरी तय कर जाते॥

 

मनस्वी-मन तहों तक जा, क्षीण आचरण-ईंट ठीक करते

बनते सतत प्रहरी स्वयं के, निज बेहतर की आशा करते।

प्राण उच्च-शिखर ओर इंगित हो, नहीं कुछ छोड़े कसर

 जगाकर निज क्षीण पक्ष, सतत अभ्यास से करते सशक्त॥

 

नहीं है आसान इतना भी, जब दुर्बलता अविश्वास जगाए

कौन छेड़े अनछुए पहलू, और क्यों मीठी नींद को खोए।

मानव के अंदर छुपे हुए हैं शत्रु, और उसे वे घायल करते

सतत युद्ध यूँ चलता है, कभी यह जीता कभी वह हर्षाए॥

 

स्व-पक्ष मज़बूत करना, मन-मस्तिष्क को करना दुरस्त

निकाल बाहर सब नकारात्मकता, आचार करना सुदृढ़।

जीवन की एक सु-शैली बना, जो भरी हो आत्म-विश्वास

 फिर अपना ही तो न, बल्कि संगियों को भी लेना साथ॥

 

यह जग स्वार्थ-मस्त है, केवल वर्तमान की परवाह करता

कभी भूत से भी प्रभावित है, तथापि अब की चिंता करता।

बहुदा परेशान सा रहता, निज क्षीणताऐं महसूस है करता

मन तो बदला न है, अन्य-दुर्बलताऐं भी निजी मान लेता॥

 

क्यों यह भ्रामक स्थिति ही, और सु-गंतव्य पर न है नज़र

मन के मीत को जगा, उसको बना ही मृदुल एवं स्नेहिल।

कैसे आगे बढ़ने के हों मार्ग, जिनका हैं अनुसरण करना

समस्त ज्ञान निकटता पर भी, इस समय अबोध हूँ पाता॥

 

बड़ी दूर पर एक तारा, मारूँ छलाँग और उसे लाऊँ तोड़

पर चाहिए महद प्रयास अनवरत, साहस ही कुँजी वाँछित।

इन जग-प्राथमिकताओं में तो, भरी हुई हैं बहुत अवाँछित

तुम निज समझो, और अर्जुन की भाँति करो मीन-लक्षित॥

 

अनेक अविष्कार, वृहद गाथा, जगत समझा स्वस्थ मन से

नहीं रहे पर-छिद्रान्वेषी, पर स्वयं को बहुत ही सुधारते हैं।

कैसे बनें अतिरिक्त भी योग्य, इसमें सब आहूति हैं डालते

जितना बन पाए उतना देते, नहीं अटकते या भ्रांत रहते॥

 

पर क्या उनका द्वंद्व न स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते

और अपने से उठकर विश्व में, कुछ सार्थक रचना करते।

कैसे बनें आत्म-विजयी, और कौन प्रेरणा कराती अद्भुत

नहीं मम में ही खोए रहते हैं, अपितु ठोस कर जाते कुछ॥

 

मनन लाओ स्व से बाहर, बाह्य सौंदर्य भी कुछ अहसास हो

पर यह अनुपम जीवन-चिंतन, कैसे बाहर भी अनुभूत हो।

पकड़ लो कूची-कैनवास, ले रंग-रोगन उकेरें कुछ ललित

सौम्य रचना हो स्व के संग, अन्यों को भी कर दे रोमांचित॥

 

उपलब्ध जीवन के प्रत्येक पल से, यथासंभव बेहतर करना

वे चित्रण तो करते स्वयं का ही, बाहर तो केवल दिखावा।

कुछ हममें से देख लेते हैं, अन्यथा निज से किसे ही फुर्सत

जब उपभोग में ही व्यस्त तो, फिर सोचते उपयोगी हैं हम॥

 

किंतु मुझे यह कलम, कुछ अंदर से बाहर चाहिए मोड़ना

कब तक यूँ ही व्यथित रहोगे, जब बाहर भी आवश्यकता।

निकालो- उठाओ उपकरण प्रगति के ही, दो झोंक सर्वस्व

तब संभावना भी, कुछ सक्षमों की श्रेणी में आने की अन्य।

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
23 अक्टूबर, 2014 समय 17:02  
(मेरी डायरी दि० 4 अक्टूबर, 2014 ब्रह्म-महूर्त 4:48 से )

  

Saturday, 18 October 2014

यायावरी उत्कण्ठा

यायावरी उत्कण्ठा 


वह अद्भुत मन-नृप, खुली आँखों से विश्व-भ्रमण है करता

एक स्थल नयापन कम, पर घुमक्कड़ी ताज़ा रखती सदा॥

 

एक स्थान रहते-२ ही, हम वातावरण से सामंजस्य बनाते

प्रकृति से एक-रूप होते, अपने लिए कुछ स्थान बनाते।

सबसे जुड़ा तो तब भी न संभव, तथापि तो लगता निजत्व

अपनी छोटी सी दुनिया को ही, समस्त जग बैठते समझ॥

 

पर यायावरी घुमक्कड़ हेतु तो, सकल विश्व अपना क्षेत्र है

वे निकल पड़ते मन में साहस लिए, नवीन-संसर्ग करते।

उनका दृष्टिकोण सर्व-व्यापी, एवं मानवता-समर्पित होता

नए लोग-वातावरण से सम्पर्क, वृहदता को बढ़ावा देता॥

 

स्व तो अत्यल्प, ज्ञात होता जब गोता महासमुद्र में लगाते

आँखें विस्मृत हो जाती और नव-अनुभव रोमांच हैं बढ़ाते।

विचित्र नजारें मन आन्दोलित करते, व स्मृति प्रखर होती

सबसे जुड़ने की चाह, और अधिक स्फूर्तिवान है बनाती॥

 

दर्शन-सामर्थ्य सर्व ब्रह्मांड को, एवं प्रक्रिया समझना इसकी

सकलता में निज भागीदारी भी, पूर्ण विश्व-नागरिक बनाती।

कण-कण में विद्यमान अनंतता के, और उसे अनुभव करते

जीवन सभी का उनका ही है, इसी से सन्तुष्टि मिलती उन्हें॥

 

मेल-जोल अन्य सहचरों से, जीवन-यात्रा सुगम है बनाता

एक-दूसरे से सहयोग, प्रेम रिश्तों में और मधुरता लाता।

वे बनते एक-दूजे के पूरक, क्योंकि अति-कठिन है यात्रा

हिल-मिल जाते जल्द नव-प्रकृति में, सब एकसार लगता॥

 

जीवन भी अद्भुत यात्रा, अनेक रहस्यों से अवगत कराता

आकाश-पाताल-धरा सब ही तो, इस यात्रा का क्षेत्र होता।

ज्ञानेन्द्रियाँ सहायक इसमें, प्रबलेच्छा-निडरता अग्र बढ़ाती

विविधताऐं विस्तृत हर स्थल पर, प्रगति-सहायता करती॥

 

अल्प-जीवन पर जिजीवाषा अति-तीक्ष्ण, विश्राम न लेने देती

आंदोलित करा मन-प्राण, संपूर्णता निकट का प्रयत्न करती।

दिन-रैन नव विषयों का अध्ययन, नर-विस्तार से है अनुभूति

निज क्षेत्र कैसे बढ़े बौद्धिकता में, यही समस्त मंत्रणा होती॥

 

सभ्यता एक तुलनात्मक स्थिति, और निस्सन्देह मात्राऐं भिन्न

पर मानव मन तो अमूमन, सर्वत्र एक सा ही हुआ विकसित।

कुछ रखते खुले नेत्र-बुद्धि, करने को प्रकृति के मनन-बखान

माना सब सच न भी होता, तो भी अपने से करते हैं प्रयास॥

 

बहुत गहरा रिश्ता है सबका, आओ कुछ और सुहृद बनाऐं

नव लोग, साहित्य-क्षेत्र, कला-संस्कृति से हम संपर्क बनाऐं।

आओ बाँटें आपसी अनुभव, एवं परस्पर का जीवन महकाऐं

निज से समर्थतरों का सम्मान, दुर्बल-मदद को अग्र आऐं॥

 

बनो विशाल मन-स्वामी, रखो सब कृपणता-अधमता दूर

होवों निर्मल मनों के संगी, और कुछ दुष्टता तो करो न्यून।

बहुत जवाबदेही जगत में, आए हो हेतु किसी उद्देश्य-परम

निकल पड़ो मंज़िल की खोज़ में, ढूँढ़ने परिष्कार-उपकरण॥

 

राहुल सांकृत्यायन का 'घुमक्कड़-शास्त्र', आजकल पढ़ रहा

मानवता-प्रेमी यह महानर, सदा अग्रसरण प्रोत्साहन करता।

मैं भी खोजी बनूँ कुछ योग्य, अन्य नहीं तो अपनी ही नज़र में

तोड़ दूँ वे समस्त जटिलता-बंधन, जो कहीं भी जकड़े रखे हैं।

 

पवन कुमार, 
18 अक्टूबर, 2014 समय 22:23 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी दि० 8 अक्टूबर, 2014 समय 9:35 प्रातः से ) 

Sunday, 14 September 2014

मन विचक्षण

मन विचक्षण 


मनन निराला, कर्म अनोखे, सचमुच सब ढ़ंग हैं विचित्र

विरला उनका समस्त ही आचरण, दृष्टि चहुँ ओर इंगित॥

 

वे खोजते हैं अपने आत्म को, तजकर बाह्य अवरोध सब

कलम को बना अभिन्न-मित्र, चल पड़ते कुछ अन्वेषण।

सोचते कि कुछ अलग करूँ, जो अब तक न आया मन

इच्छा से वृहद-पहचान कर, नूतनता में बढ़ाते हैं कदम॥

 

यहाँ प्रतिक्षण नवनीत ही है, आवश्यकता बस पहचान की

यूँ तो हमें एक जैसा ही लगता हैं, यथार्थ में पर सही नहीं।

हर श्वास यहाँ नया है, पुराने का निरन्तरता में सु-आगमन

सर्व-अवययों में प्राण-दान, कुछ तोड़कर ही नव-निर्माण॥

 

फिर क्यों न मचलूँ, निज लघु-मन की चिंतन-विस्तृतता में

आकाश में घटनाओं का चक्र अति-विशाल, बुद्धि-पार है।

जिन तारों को आज देखते हैं, वे अति-पूर्व का है प्रतिबिम्ब

प्रकाश गति माना सर्वाधिक, पर दूरी भी तो अति-विपुल॥

 

जिन विषयों को हम आज सोचते, उनका बीज़ है पुरातन

धीरे-२ घटित होता जाता, समय आने पर होता मुखरित।

अभ्यास हम मन में करते, और अति कुछ रखते छुपाकर

सोचते बहुत कुछ हैं, कम बोलते व कर्म में अति-निम्नतर॥

 

हम अपने में एक संसार लिए, शायद बाह्य से अधिक ही

माना कि न प्रकटीकरण है, कारण शायद कि आता नहीं।

जगत-विचित्रता को हम ही बढ़ाते, स्वयं के साथ ही रहते

जितना खोजा उससे अधिक पाया, मात्र गोता लगाने से॥

 

उस वृहदता के अंश हम भी हैं, पर कितना महसूस करते

कैसे प्रवेश करें और सीखे मार्ग, इस पर विचार तो करते।

मैं पाता सब डूबे हुए, बाह्य-आँखें खुलीं पर अंतः झाँकती

वे खोजती निज-बारीकियों को, व समस्त से बात करती॥

 

मन की आँखें खुली बहुत हैं, तथापि दृश्य तो अति-महान

जितना देखो उतना कम है, और चर्चा तो कठिन-नितांत।

हम फिर मन को दौड़ाते रहते, सीखने को नित नई विधा

निरत करते स्वयं-सुधार, वचन को कुछ आत्म-कविता॥

 

बनूँ निपुण और स्वयं का साथी, ऐसी मन में प्रबल आशा

विचरूँ बहुत व देखूँ-समझूँ, इस सबकी है यही कामना।

निज-संसार को संपूर्णता से जानूँ, अनेक विद्या हैं अनुपम

मूढ़-सम ना जीवन बीते ही, कुछ खोजो सीखने का मन्त्र॥

 

माना कि तुम बहुत विशाल हो, पर सब ही अन्धकार में हैं

प्रकाश आया तो भी कुछ दृश्य, जो अतीव विस्मयकर हैं।

कुछ तो समझ न आता, बस यह कलम चला ही लिखती

स्व-नादानियों से जूझती, अति-कठिन से सामना करती॥

 

जितना चला उतना कष्टकर ही पाया, कुछ मार्ग न हैं सूझे

लगा कि सर्वस्व ही अज्ञान, और प्रक्रिया का तो पता न है।

बुद्धि भी विशेष ज्ञान-पुस्तकें छोड़कर, स्वयं से ही लड़ती

फिर लघु-२ ज्ञान से ही, अति-दूरी पूर्णता से पटा करती॥

 

क्यों चला मन-राह, इस प्रश्न का उत्तर समझ आता नहीं

यह कलम चल रही, क्या कह रही, सब बातें रहस्य की।

मेरे मन की क्या है औषधि, कुछ ज्ञान यदि यह पा तो लें

नित्य नवीन मृदुल-सुर निकले, तभी तो कुछ नूतनता है॥

 

मैं कहाँ से चला था व पहुँचा कहाँ, क्या हूँ उचित मार्ग पर

बात प्रारंभ थी चहुँ ओर की, पर खुद में ही हो गया लुप्त।

मैं इससे निकलना तो चाहता ही, ज्ञान मार्ग में बढ़ना पर

वही राह दिखाता है, वर्धन-शक्ति अतिरिक्त अंतः-गमन॥

 

यह विश्वास करूँ यदि मन-उदय है, तो विकास भी संभव

प्रयास उस हेतु जितना चाहिए, उतना कर्म तो है वाँछन।

नहीं रुकना मनन-ज्ञान पथ पर, चाहे बाधा हो अति-महद

उलझन से जूझना है मानव-फ़ितरत, नव-प्रयोग वाँछित॥



पवन कुमार,
१४ सितम्बर, २०१४ समय १७:१३ 
( मेरी डायरी दि० १० मई, २०१४ सुबह ०९:५२ से )

Tuesday, 2 September 2014

पुनुर्द्भव

 पुनुर्द्भव 
--------------
कल मैं मर गया था और उस मरने में जीने की कोशिश की थी।  क्या जीवन का महत्त्व है यह तो मरने के बाद ही पता चलता है। इस मरने में अपनी हस्ती भुला देना होता है, वह बन जाना है जिसका कोई वजूद नहीं होता। जब शून्य हो जाओगे तो अशून्य का भेद पता लगेगा। मिटने का मतलब अपने को संज्ञा शून्य कर लेना, अपने को अपने से हटा देना और जो कुछ नहीं है उसमें समा लेना। जो है उसकी खोज में अपने को मिटा देना और शायद उसी का भाग बना लेना। उसका बन जाने के बाद और कुछ जाने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वही तुम्हारा परम उद्देश्य है और वही धाम है, उसी में जाना सबकी नियति है। तुम जल्दी चले गए अपने को धन्य समझो क्योंकि जल्दी समझ आ जाएगी। आवश्यकता तो वो भी नहीं है लेकिन अनुभवहीनों से तो फिर भी बेहतर है। अनुभव मिट जाने का तुम्हें सिखाए जीवन का मोल, अपने जीवन का मोल ताकि जब वह तुम्हे मिले तो तुम उसका आदर कर सको और उसको पूरा जी सको। कृपा उस धाम की जो इसको फिर बार+म्बार सिखाएगा और कुछ योग्य बनाएगा। उसमें क्या समाना था और क्या तुम्हारा मिट गया था। क्योंकि तुम सब कुछ बाह्य भूल गए थे और केवल स्व निज में मनन था तो वह स्थिति तुम्हारी मिटने वाली ही थी। उसी अन्तरतम में डुबकी लगाने का परम उद्देश्य स्व का अन्वेषण करना है और अपने नज़दीक जाने का रास्ता है। फिर डुबकी लगाना क्या है और फिर उसमे प्राण गवाँ देना। क्या मैं बाहर खड़ा अपने निर्जीव को देख सकता हूँ और उसने क्या- 2 किया, उसका विश्लेषण कर सकता हूँ। मैं किन तत्वों का बना हूँ, चेतना का क्या आधार है। मेरी क्या मनोदशा है और मैं कैसे उसे सर्वोत्तम में परिवर्तित कर सकता हूँ। मेरी क्या गति है और कैसे मुझमें जीवित होने की भ्रान्ति होती है। कहाँ हूँ मैं, कैसा हूँ मैं, क्यों हूँ मैं, कब हूँ मैं, कुछ समझ भी पाता हूँ या फिर दिखावा करता हूँ। कुछ भी तो स्पंदन नहीं है, फिर जीवन शेष है ही कहाँ\ मैं अपने जीवित या मृत होने स्वाँग करता रहता हूँ लेकिन अपने को न जीवित और न मरने में पाया है। फिर भी कोई तो मेरी गति को जानता होगा।-शायद मैं इतना अनाड़ी हूँ कि उस ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं कर पाता। फिर भी संसार में धकेल दिया गया हूँ और जीवित होने का छलावा करता हूँ जबकि पता है कि कोई जीवन है ही नहीं। यह सब तो बाह्य है, अंदर सब शून्य है। शून्य में शून्य का वास है।       

मैं मस्तिष्क की पूरी शक्ति लगाकर यह पता करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैं क्या हूँ और कैसे अपने को अपने में महसूस कर सकता हूँ। शरीर में चेतना तो बाह्य ज्ञानेन्द्रियों का क्षेत्र हैं। अंदर का तो कोई क्षेत्र इंगित ही नहीं है। वे कहते है बहुत विशाल है और बाह्य से बहुत अधिक है पर मेरी स्थिति में मरने के बाद भी मैं जान पाया हूँ। हाँ, जब जीवित था तो बिलकुल ही पता नहीं था। अब मरा हूँ तो शायद ये प्रश्न करने लगा हूँ कि वह क्या हूँ और पता लगने लगा है कि मैं वह नहीं हूँ जो लगता है। मैं सूक्ष्म हूँ और करीब-2 शून्य हूँ और मेरे संसर्ग में भी कोई शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मैं हिलता- डुलता नहीं हूँ और बस पड़े -2 केंचुए सम मिट्टी में रोला करता हूँ। जैसी स्थिति आ जाए बाह्य अवस्था में उसी में समा जाता हूँ और कुछ देर के लिए उसमें व्यस्त हो जाता हूँ लेकिन अन्दर से जानता हूँ कि मेरी स्थिति शून्य की है और मैं उससे अलग नहीं हूँ। मैं और शून्य कोई अलग नहीं हैं और परिणति उस शून्य में ही होनी है। क्या मेरी शून्य की स्थिति मेरी सुप्तावस्था जैसी नहीं है। नहीं, क्योंकि स्वप्न तुम सुप्तावस्था में देखा करते हो और शून्य से बहुत दूर होते हो। स्वप्न तो तुम्हारे जीवन का ही प्रतिबिम्ब होता है और शून्य से अलग होता है। पर यहाँ प्रश्न सुप्तावस्था या स्वप्न और उससे भी महत्त्वपूर्ण शून्य का भी नहीं है बल्कि एक प्रश्न का उत्तर देना है कि जो चेतना अवचेतन शरीर, मन मुझमें भरा भरा गया है वह क्या है और उसका कैसा स्वरूप है। कैसे उसकी थाह खोज की जानी है, कैसे उसे अपने बहुत 2 नज़दीक पाना है और उससे भी अधिक अपना बना लेना है। उस प्रयास की खोज करनी है उन रास्तों को ढूँढना है जो मुझे वहाँ ले जाऐंगे। मेरी यह कोशिश केवल एक माध्यम है बल्कि असली उद्देश्य अपने वज़ूद को अहसास करना है। उस स्थिति में आत्मसात होना है जो मुझे अपना होने का अहसास करा दे। उस मृतावस्था से भी परम स्थिति में जाना है जहाँ फिर जीवन, मरण और अन्य बीच की स्थिति की आवश्यकता न हो। बस मैं होऊँ पर मेरा वह परम वज़ूद होवें जिसमें परम तत्व से साक्षात्कार हो जाए। बस बैठा हूँ जाना कहाँ है पता ही नहीं है। फिर भी चल तो पड़ा ही हूँ कहीं न कहीं तो पहुँचूँगा। विश्वास है कुछ जरूर होगा अच्छा ही होगा। 

धन्यवाद।
पवन कुमार, 
2 सितम्बर 2014 समय 23%18 रात्रि  
(मेरी डायरी 4 जनवरी 2009 समय रात्रि 9 बजे से )




Sunday, 31 August 2014

क्यूँ कि खोज अभी जारी है

क्यूँ कि खोज अभी जारी है 


शांताकारम, विश्रामावस्था, एकचित्त व मननोद्यत

अनंत गहराईयाँ जाना चाहूँ, जहाँ सब सीमा-मिट॥

 

परम शांत तो न कह शक्य, चलित होते ही हैं अंग

यत्न करता एक विशेष-मुद्रा, व निरंतरता-वाहक।

'स्वामी मस्तिष्क' कथन, कैसे शांत करें अंग-प्रत्यंग

तभी लब्ध मन-एकाग्रता, व अधिक करने का बल॥

 

देखो मनन-ध्यान से ही तो, स्वयं-विजयी सकते बन

चित्त-शुम्न, तन-पुष्टता, श्रेष्ठ वातावरण दे सकती वह।

कहीं खो गया हूँ स्व-सोच में, बाह्य की चेतना न कुछ

क्या परम-चिंतन करते ज्ञानी, सब ही तो अचिन्हित?

 

बड़े शब्द ज्ञानी-मनीषी, चिंतक-विद्वान व भक्त-सन्त

कथन है ज्ञाता बैठते ध्यान, हेतु अनुभूति करने परम।

पर क्या वह चिन्तन-मार्ग, और कैसे उसे वे हैं साधते

उनमें कितने विश्वसनीय, कुछ पा ही लिया है सच में?

 

प्रश्न उन्होंने क्या साधा, और कितने वे हुए हैं सफल

क्या सत्य मनन उस अवस्था में, या यूँ ही नेत्र हैं बंद?

क्या अध्याय-पाठ-उपाय, जिनका सतत ध्यान करते

व उत्तरोत्तर उर्ध्व-अवस्था में नित चलायमान रहते॥

 

कितना सघन अंतः-जगत, पर बाह्य हम हैं अति क्षुद्र

कैसे हो उनमें सामंजस्य, बल-प्रदायक है वह सक्षम?

कर्कश-वाणी, 'यदा तुष्यते तदा खिन्नते' सी स्थिति में

सम दर्शन तो न समक्ष, कैसे महानता का दंभ भरते?

 

शायद कुछ मानव हों, जो एकभाव में निर्वाह हैं करते

विजित कर लिया हो, दुर्वासनाओं व कर्मों को अपने।

मेरा अभी तक न परिचय है, ऐसी आत्माओं से महान

तथापि संभव कुछ है, प्रयत्नों से स्वामित्व किया ग्रहण॥

 

फिर मन का दर्शन कैसा हो, यह एकांत-लाभ उठाऊँ

बहुत खोखला अंतः तक में, कुछ ठोस न कर पाता हूँ।

दशा मात्र सकल तंत्र में नगण्यता का ही कराती परिचय

पर अभी क्षणों में तो जग-अस्तित्व भी न आता है नज़र॥

 

फिर सत्य कि यह जग भी तो, मुझसे बड़ा जुदा नहीं है

जैसा मैं मुर्दा, वह भी वैसा ही बस कयास स्थिति में है।

कुछ को अनुभव स्थिति ज्ञात हो, अनेक चरम-भ्रम में

मनीषी जानते सब है माया, सब शामिल इस खेल में॥

 

यह मेरा ही चिंतन-रूप है, या और भी भ्रमित अतएव

संभव मन स्थापित हो गया है, ऐसे भी मनन प्रकार में।

और भी औसत व्यवहार- ढ़ंग से, निज में विद्यमान होंगे

तुलना न चाहूँ मैं किसी से भी, सब स्वयं में महारथी हैं॥

 

यदि कुछ गुणी भी हैं, उनका विदित होना चाहिए मार्ग

उससे तो किञ्चित लाभ ही है, मुझे भी होगा पथ-ज्ञान।

प्रयत्न तो करता खाली क्षणों में, व स्वयं से करता बातें

पर क्या यह उत्तम-मद्धम, इसका कुछ भी न पता है॥

 

कहते हैं 'थोथा चना बाजे घना', क्या जग-ध्वनि ही ऐसी

क्या मात्र स्वाँग करते हैं, या फिर सचमुच में गंभीर ही?

यद्यपि कुछ व्यवहारों में, दिखते हैं संजीदा व समर्पित

किंतु प्रस्तुत क्षण तो, निरे ही सवेंदनहीन-अनिरूपित॥

 

फिर क्या जीवन-सार्थकता, जब सच में कुछ ही न है

मनीषी-व्याख्या निज है, पर मूल सत्य उससे ही परे।

इस अनंतता में हम, निर्जीव-अघड़ित पत्थर से हैं पड़े

इसका प्रयोग न तो उनको पता, न ही हमको ज्ञात है॥

 

मैं भी बैठा इस कथित ध्यान में, कोई जैसा भी कह दे

कहते परम रहस्य खुलते, व ज्ञान पा भी लिया उनने।

या कुछ क्षण-विभ्रम सा, कुछ अनुभव कर ही है लिया

या पहुँचे उस परम में, ओर-छोर अति-दूर जिसका॥

 

दिवस में चलन-विचरण है, अजीब व्यवहार करते हम

इनको जागृत-क्षण कहते हैं, पर निश्चित अति कमतर।

इतने लघु, ठीक से निज भाषा प्रयोग भी न पाते हैं कर

लेख-पठन, व्यायाम, मनन-संवाद तो हैं अति-मद्धम॥

 

कैसा गर्व स्व-विद्वता का, जब इतने हैं अल्प-विकसित

अन्यों को समझते क्षुद्र, जब स्व-स्थिति निम्नतर से निम्न।

कैसे करूँ मन-यत्न, और सत्य स्थिति को जाऊँ ही जान

फिर अच्छी हो या बुरी, किसी से कोई न है शिकायत॥

 

फिर मनन पर आता, कौन गूढ़ वस्तु इस चेतना-स्थित

क्या मार्ग दिखा सकती, यदि कुछ है सामर्थ्य निहित।

या यह बाह्य भाँति, एक मद्धम गति-वाहक व सामान्य

और कुछ भी अपेक्षित न, क्योंकि तो असमर्थ सी यह॥

 

इस सोई सी अवस्था में, कुछ मौत का साथी है लगता

क्यों नींद कुछ पूरी होने पर, अर्ध-स्वप्नों में खो जाता।

अभी तो आभासित कि अर्ध-चेतन, निस्पंद-मौन ही मैं

पर कह न सकूँ, स्थित हूँ सत्य ही सच्चिदान्द रूप में॥

 

प्रभु !, आकांक्षा-पंख लगाकर, उड़ान करा यथासंभव

मुझे सुस्वरूप से मिला, जो है निश्चित समक्ष से पृथक।

होने दे फिर युद्ध-भयंकर, प्रस्तुत और संभावनाओं में

अब नितांत सरल हो, निज औकात जानना चाहता मैं॥

 

यहाँ कुछ पंक्तियों से, यह कागज-पेट नहीं भरने वाला

इसे सतत हथोड़े-छीनी प्रहारों से, अनिवार्यता तराशना।

नहीं तो कैसे संभव सुमूर्त, इस अघड़ित प्रस्तर-खंड से

और तब स्थिति बनेगी कुछ बेहतर, विश्वास जम सके॥

 

कोई तो मुझे किसी उत्तम शिल्पकार के पास छोड़ दे

और उसे ठीक से समझा दे, कि क्या कुछ बनाना है ।

फिर परिवर्तित होगा, एक लकड़ी के कुन्दे से मैं वह

 कोई कुछ कर्म करके, उसमें प्राण-प्रतिष्ठा देना फूँक॥

 

तो बजने दो ढ़ोल-ढ़फली-नगाड़े, खड़ताल-बीन-मृदंग

यदि कोई सर्वशक्तिमान-समर्थ है, तो करूँ स्तुति चिर।

यदि न भी तो नहीं कोई चिंता है, बेहतर बेशक दो ताने

फिर भी भाव, अंतः-बाह्य के सुधारने का होना चाहिए॥

 

यहाँ कुछ सोचकर ही अन्दर से करता हूँ प्रयास-प्रयत्न

 बाहर वे अपनी बेहतरी हेतु, सदैव हैं कर्मयोग में सुरत।

 क्या तुम उनकी इसमें कुछ सहायता ही कर सकते हो

 यदि आवश्यक हो, कोई प्रश्न पूछने में भी न हिचको॥

 

मेरे उस मनन का क्या हुआ, ले चला था मनीषी-चर्चें

क्या वे भी मेरी भाँति शून्य ही हैं, या कुछ ढ़ोंगी उनमें?

या मेरे प्रयत्न में है कुछ न्यूनता, और मार्ग उनका श्रेष्ठ

तब भी सीखना अनिवार्य, बेहतर-आचरण हेतु कुछ॥

 

मेरी तूलिका यूँ चलती, कुछ अन्वेषण करने को निज

प्रयास किञ्चित नहीं रुके, व समस्त दिशाऐं हों भ्रमण।

निज विसंगतियों से परिचय, व प्रदोष सकल हों बाहर

और नव-अध्यायों का भी करें एक दायित्व से निर्वाह॥

 

मैं आया, खाया व खो गया इस जग भूल-भलैया में

इस लाड़ली की कर खोज, चाहे कुछ भी न पता है।

कर वह परम-आराधना, शायद मार्ग जाए ही मिल

 होंगे फिर वे अति-हर्ष के क्षण, जो हैं चिर-प्रतीक्षित॥

 

तब क्या मेरी प्राण-परीक्षा, और कौन वे हैं सुपरीक्षक

मेरे विकास हेतु सब उचित ही होगा, है विश्वास पूर्ण।

किंतु मैं न खोऊँ नींद में, कुछ सार्थक संवाद लूँ कर

जानूँ स्वयं को शीघ्र व अन्यों से भी ऐसी आशा कर॥

 

फिर आऊँगा जल्द ही, संग कुछ नव अध्याय-मनन

और देखूँगा कितना बहु खोखला अभी मुझमें लुप्त॥



पवन कुमार,
31 अगस्त, 2014 समय 00:04 म० रा०   
(मेरी डायरी दि० 31.05.2014 समय 12:58 अपराह्न से )


Wednesday, 27 August 2014

अपना - गणतन्त्र

अपना - गणतन्त्र 

भारतवर्ष में सामान्य, सहज प्रजाजन-अधिकार

आज ही के दिन प्रयोगार्थ किए गए थे स्वीकार॥

 

अनेक बेड़ियों के दौर से ही गुजरा यह आदमी

किसी रहम-दिल ने सोचा कि ये भी हैं आदमी।

वरन कुछ नितांत स्वामी थे, ईश्वर सा स्तर लब्ध

और अनेक तो बस थे, बेबस दशा में ही त्रस्त॥

 

किसी ने सोचा, आदमी-आदमी में क्यों है अंतर

क्यों कुछ को निम्न अथवा समझा जाता है उच्च?

क्यों न होते सबको उपलब्ध सभी अधिकार सम

क्यों निज को कुछ मानते ज्यादा ही बरखुरदार?

 

सम समाज से असमता का दौर ज्यों सबने देखा

तो कर्कशता से यूँ मानवता-कलेजा फटने लगा।

फिर श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ भेदभाव का होने लगा अवमूल्यन

कुछ लगे बढ़ने आगे, कुछ पीछे करते हाहाकार॥

 

फिर कुछ में निज-स्थिति से उबरने की इच्छा प्रबल

और चल पड़ा संघर्ष-रोष-अभिव्यक्ति का दौर तब।

सब घटित अत्याचारों को मिटाने का यूँ मंसूबा प्रखर

ताकि सबको मिले समुचित-समतामूलक व्यवहार॥

 

यह 'गणतन्त्र' नाम है, आम आदमी का उबार-नाम

सार्वजनिक उन्नति चाहे अल्प, किंतु तो भी अभ्रांत।

और फिर सर्वत्र हो, हर होनहार में प्रतिभा-विकास

 दूर रुढ़िता, अपढ़ता-निर्धनता, व अज्ञान-अंधकार।।


पवन कुमार,
27 अगस्त, 2014 समय 23:21 रात्रि      
( मेरी शिलोंग डायरी दि०  26 जनवरी, 2002 समय 10:40 से )