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Monday, 30 September 2019

कलम-यात्रा

कलम-यात्रा 
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चिंतन-पूर्व भी चिंतन, एकजुट देह-आत्मा समर्पित महद-लक्ष्य 
समय-ऊर्जा भुक्त, पर यथाशीघ्र मंजिल-प्राप्ति हेतु हो तत्पर।  

मनन-विषय अहम प्रारंभ-नियम, पर यावत न तिष्ठ कुछ न निकस
एक चित्तसार, सुखासन-प्रकाश, देह-मन सहज, एकांत-निरुद्ध। 
अहं-त्याग, वृहद-संपर्क चित्ति, पठन-पाठन से भी बहु -एकाग्रता
मन पूर्ण-बल तत्काल संभव, जब एक यथोचित परिवेश मिलता। 

देखते ऊँट किस ओर बैठता, कहाँ-किस विषय मन की होगी यात्रा 
यही सखा-वाहन या पथ-प्रदर्शक, विस्मयों से चेतन-संपर्क कराता। 
कोई वजूद न यदि न पूर्ण-तत्पर, समय-ऊर्जा माँगती यात्रा न्यूनतम 
फिर थकन, मध्य-विश्राम, अग्रिम तैयारी, गंतव्य-अन्वेषण-संपर्क। 

सब चाहते सुखद-मनोहर, ज्ञानद-मधुर यात्रा, अग्रिम तो अल्प-ज्ञात 
न्यूनतम जोखिम भी जरूरी, उचित अपेक्षा, तैयारी बनाती सुयोग्य।
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही  रोचक-संपर्क
सब कुछ तो विश्व-थाती, न जानेंगे तो कैसे कुछ कर सकेंगे हित। 

पर यात्रा में भीषण-स्थल छोड़ते, गाइड रोचक-स्थल ही लाते प्रायः 
ज्ञान सर्वत्र पर मुख्य-स्थल संघनित, एकदा गमन से भी विषय ज्ञात।  
कथन-समझ सुलभता, संग्रहालय बनते, अधिकाधिक दर्शक-भ्रमण 
राजा-महाराजा, दरबारी-प्रजा की कथा, दर्शक भी रोमांचित होते। 

कौन आवास-गृह जाते गत-काल बाद, जब इतिहास से आए बाहर 
चाहे कितने ही निरंकुश-दुधर्ष, पर कुछ महत्त्वपूर्ण-चर्चित था नाम। 
महल-बावड़ी, अद्भुत पच्चीकारी उस नृप-निर्मित, सार्वजनिक अब
माना अनेक-सहयोग महद कृति में, नाम-गुणगान तो नेता का पर। 

दूर-देश पथिक हर सम-विषम से गुजरता, माना सुगमता तगाजा 
तथापि अरुचिकर आ ही जाएगा, आवश्यक न शुभ-संपर्क सदा।
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सर्व-विश्व भिन्न-रसज्ञता हेतु उद्यमित, किसी दूर-यात्रा चल पड़ो। 

एक झलक हेतु ही तो सब अन्वेषण, कब दर्शन हों भविष्य-गर्भ में 
 छवि अनुभव परम-दृश्य की, सब मौन-भिन्न ढंगों से प्रयास करते। 
जीवन-सार संभव चरम-अनुभूति से, सब मध्य-यात्राऐं हेतु ही उस 
जितने अधिक दृश्य-अनुभव, सत्यमेव चरम भी उतना श्रेयस्कर। 

कथन देव का उत्तम ही वहन, पर क्या परिभाषा उत्तम-अधम की 
  कुछ तो निस्संदेह शोभनीय, कुछ भीषण-दुष्कर, दुराह-कष्टकारी। 
जहाँ सुखी जलवायु-भृत्ति वहाँ बहु-संख्या, विषम स्थल प्रायः निर्जन
सब प्राण-देह हेतु अल्प कष्ट चाहते, सुगम जीवन हो कयास बस। 

पर खोजी को भीड़-भाड़ में अरुचि, इच्छा दुर्गम कौशल-आत्मसात
निज देह-मन पर कई प्रयोग, कितना आगे बढ़ सकें, पूर्ण प्रयास। 
न अति-संतुष्टि मात्र दैनिक खान-पान में, आगे बढ़ो चूम लो गगन 
सब सुख-साधन-ऐश्वर्य तज, एक फकीर सम  जीने में न हिचक। 

सर्व-विश्व निज तो विक्षिप्त-वनवासी, भीषण-त्रस्तों से क्यों दूरी है 
कहीं न कुछ अपेक्षा कर दें, अंततः सब न्यूनतम सुविधा चाहते। 
  जरूरी तो न दुःखी ही, नर अल्प साधनों संग बहुकाल से जीता    
 प्रकृति-पुत्र, उस संग दिवस-रैन  रिश्ता, गुजर-बसर कर लेता। 

किंचित अंत्यजों से क्यूँ दुराव, इहभाव से कदापि न बड़ा-हित 
विश्व एक-स्रष्टा प्रारूप, महा-घटना उदित, समस्त तत्व निहित। 
कुछ को उत्तम-प्रयोग माने, कुछ अपशिष्ट, यह दृष्टिकोण-गत 
विवेकी ही उत्तम-अधम भेद-सक्षम, आम जन पूर्वाग्रह-ग्रसित। 

अभी विषय न सम-विषम, पर भाव नर वृहद-नजरिया अपनाए
सब स्वीकृत, निज-रूचि अनुरूप जिसे चाहें लें, पर घृणा न करें। 
ध्येय हो हर का समग्र-सम्मान, कैसे मिल-बैठकर बात सकें कर 
प्राण कठिन, प्राणी का बलानुरूप समायोजन, अतः न प्रतिवेदन। 

पर नर यात्री ही तो इस वृहद-सृष्टि में, जितना संभव उतना देख 
ज्ञानेन्द्रियों की सदैव स्वस्थता-संभाल से तो, देख सकोगे विराट। 
जीवन-पूर्णता तो अनुभव से ही  संभव, सार मिलेगा सुचिंतन से 
न घबराना कटु-अनुभवों से कभी, निज-काल में सशक्त करेंगे। 

कवि की क्या वर्तमान-चाह, समय कम पर सारांश तक न गमन 
एक शुरू-यात्रा तो पूर्ण हो, अनुभव लेखनी से निरूपण लें कर। 
मनोदित दार्शनिक भाव स्वतः ही उदित, पर कब लब्ध न ज्ञात 
पर इतना जरूरी चरम-अभिलाषा, कितना निखरे विधाता हाथ। 

मेरा मात्र प्रयोग मन-कलम से, कैसा परिणाम होगा भविष्य-गर्त 
न पूर्वाग्रह किसी भाँति का, यदि समय हो तो जितना चाहे चल। 
दृष्टि निस्संदेह प्रखर चाहिए, उसे देखना अभी वर्तमान क्षणों में 
मन भी दाँव-पेंच लगाता, कलम-माध्यम से कुछ उकेरन करे। 

जीवन चलना अति-दूरी, जिज्ञासा प्रगाढ़ मन-देह बनाए रखना 
कभी तंद्रित न हो जाना कर्त्तव्यों में, महद हेतु दीर्घ जगे रहना।
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण 
सब विश्वास करें परस्पर, व्यर्थ-विवाद हटा राह में हो सार्थक। 

भौतिक-मनस भ्रमण बढ़ाओ, जब संभव निकलो अज्ञात तरफ 
संपर्कों से ही अंतः-कोष वर्धित, विकास के कई प्रदान अवसर। 
महाजन महद सक्षम अनुभव-संपर्कों से, विवेक सदा संगी रहा 
तभी जग में नाम, जन जुड़ना पसंद करते, रहें स्मरित दृष्टांत। 

मन-देह स्वास्थ्य अपनी जिम्मेवारी, सहेजना यत्न से सब अंग 
नित्य-व्यायाम आदि से सकुशल, सामंजस्यता न जाना भूल। 
समुचित अनुरक्षण व काम, सृजनता-गुणवत्ता-क्षमता वर्धन 
ध्यान रखना सामान का, जो भी उपलब्ध हो उपयोग-पूर्ण। 

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे, कलम-यात्रा विचित्र-अदृश्य ओर 
मन बहु-आयाम समक्ष, गुह्य-अध्यायों से ही है सुपरिचय। 
मैं तो जीवन का दास, कहाँ-किस धाम जाना तुझे ही ज्ञात 
कुछ यात्रा-अनुभव, कयास-प्रयास, ओ मौला हो रहमत। 


पवन कुमार,
३० सितंबर, २०१९ समय ६:२३ प्रातः
(मेरी जयपुर डायरी २३ नवंबर, २०१६ समय ९:२२ प्रातः से)   

Sunday, 15 September 2019

'यह जग मेरा घर'

यह जग मेरा घर
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हर पहलू का महद प्रयोजन, ऐसे ही तो जिंदगी में न कहीं बसते 
नव-व्यक्तित्वों से परिचय, नया परिवेश निज-अंश बन जाता शनै। 

कुछ लोग जैसे हमारे हेतु ही बने, मिलते ही माना प्राकृतिक मिलन 
जैसे अपना ही कुछ बिछुड़ा सा रूप, मात्र मिलन की प्रतीक्षा-चिर। 
धीरे-२ आत्मसात भी, यदा-कदा विरोधाभास तो बात अति सहज 
खुद पर भी कभी क्रोधित-खीजते, अंतरंगों से भी तो क्या अचरज?

जीवन में कुछ सीमित पड़ाव ही मिलते, बस कब आ जाते अज्ञात 
उन्हीं में कुछ समय जिंदगी बस जाती, चाहे पसंद करें या तटस्थ। 
स्थानांतरण हो जाता वहाँ कौन मिलेंगे, नाम-गाँव का न पता कुछ
धीरे-२ वही एक शरणालय, पूर्व-अपरिचित अब सहयोगी अंतरंग। 

किसको जानते थे जब जग आए, पर धीरे से एक दुनिया ली बना 
लोग जुड़े या हम उनसे एक बात, तात्पर्य सौहार्द एक निजता सा।  
एक अपरिचित से परिणय हो जाता, फिर बन जाते जन्मांतर-संगी 
दो देहों में एक आत्मा वास, उसके सब कष्ट लूँ यही इच्छा रहती। 

नव-स्थल आगमन पश्चात शनै मकान-सड़क-गलियों से अपनापन 
कालोपरांत नए चेहरे निज रूप ही लगते, जंतु-पक्षियों से भी प्रेम। 
क्या यह सहज प्रवृत्ति, आसानी से ही हम एक दूजे को लेते अपना 
नेत्र-भाव-व्यवहार भाषा प्रधान, यदि वाणी-मिलन तो और सुभीता। 

अपने ही काल देखूँ तो कुछ निश्चित जगहों पर ही अद्यतन कार्यरत 
कुछ वर्ष एक जगह व्यतीत, एक अमिट छाप जीवन संग चिपक। 
निज मर्जी से तो कोई न आया बस धकेला सा गया, समझौता फिर 
वहीं करना-खाना, खुश हो रहोगे तो ज्यादा तन-मन से स्वस्थ भी। 

पर शुरुआत थी संपर्कों का हमारे जीवन में है एक विशेष उद्देश्य
लोग पुनः टकरा ही जाते, स्मृति नवनीत, लगता कल की ही बात। 
निकट-नरों का हम पर गहन असर, किंचित हमारा भी उन पर 
आदान-प्रदान से शनै सब एक सम, चाहे बाहर से पृथक-दर्शित। 

हमारे घर अचानक पूर्व-विचार के मेरी बेटी ले आई लूना पिल्ली 
शुरू में अच्छी, पर बाद में उसकी पोट्टी-मूत्र से घृणा होने लगी। 
लगभग एक वर्ष उसकी हरकतें सही, अब है घर की सदस्या सी
अब उसके बिना कुछ भी पूरा न, पशुओं से प्यार हो सकता भी। 

यह आवश्यक न जिनको हम जानते, सभी को दिल से चाहते 
पर जैसे भी पूर्व-स्वीकृति के न, बस यूँ कहें हमपर धकेले गए।
उनका भी असर हम पर, उनके हेतु भाव अंतः-प्रभावित करते 
न चाहते भी न्यूनतम रिश्ता, अनुभव-भावों का स्थायी प्रभाव है। 

जिंदगी में कई व्यक्तित्वों से योग, गूढ़-संपर्क चाहे काल-सीमित
अमिट असर, प्रतिक्रिया स्वभावानुसार, परिणाम हो जाता निज। 
पर प्रश्न कि विशेष संपर्क में आते ही क्यूँ, यदि वे न तो सही और 
या वृहद विश्व नियम-रोपित, निश्चित अवधि पर ही अमुक मिलन। 

अनेक भाग्य-सिद्धांत विद्वान-निर्मित, बहुत अधिक तो विश्वास न 
या किसी अच्छे से अभी तक न संपर्क, जो पूर्वाग्रह कर दे दूर। 
जब स्वयं अंध तो सर्व तमोमय ही, प्रकाश-अभाव ही अंधकार 
स्वयं अपढ़ तो शिक्षा व्यर्थ प्रतीत, महत्त्व संपर्क-साधन से ज्ञात। 

   'तू नहीं तो कोई और सही', सब हैं एक परम-पिता का न अंश    
 सहोदरों से रक्त-रिश्ता, सम अभिभावक अंड-शुक्राणु मिलन। 
बंधु जो माता-पिता व भाई-बहन संपर्क से जुड़े, वे भी भाग होते 
प्रश्न है अन्यों से कैसे संबंध हों, न साँझा हमारा रक्त-कण उनसे।

वृहदता से देखें तो सब मानव सीमित अभिभावक-संतति किंचित 
उनके ही रज-कण बिखरें, समस्त मानव जाति से रिश्ता है अटूट। 
यहाँ-वहॉं बिखर गए तो क्या, बीज एक से तो पादप तथैव अंकुरित 
कोई विरोधाभास न समरूपता में, स्वसम से होता संपर्क जल्द। 

मानव-समूह चाहे विलग प्रतीत, भिन्न अभिभावकों में समाए सम 
सब संतति-गुण सहज मिलते, एक अपनापन है उदित यकायक।  
श्रेष्ठता-अहंभाव नरों में अप्राकृतिक, कुछों छद्मियों ने दिया समझा 
गरीब-धनी में कुछ न विभेद, जीवन-संघर्षों से किंचित कर्कश हाँ। 

बड़ा प्रश्न क्यूँ अमुकों से ही मिलन या पूर्व-अपरिचित स्थल-गमन
क्या उनसे कोई पूर्व-संबंध, या जग में कुछ न कुछ रहता घटित। 
गुजारा स्थान-परिवर्तन से, समायोजन करना होता, शनै प्यार भी 
सत्यमेव एक निज भाग बन जाते, उनसे निकसित प्रयोजन भी। 

जीवन में भी है बहुल नूतन संपर्क, लोग मिल रहें, कुछ रहें बिछुड़
निश्चित बहु जीवंत भाग निर्मित, अपनों से मिलना भी आवश्यक। 
संपर्क हमारे रिश्ते सुदृढ़ करते हैं, सुहृदों को न कभी त्यागो अतः 
'आँखों से दूर मन से भी दूर है', रिश्ते मरते नहीं देते हैं मार हम। 

जिस पर ध्यान होगा वही बढ़ेगा, अतः संपर्कों का योजन संभव 
जहाँ जन्म है वहाँ भी ध्यान दो, उनको भी मिलना चाहिए लाभ। 
बात याद रखो जहाँ जाओ अमिट छाप दो, बन जाय स्मृति-अंश 
  चाहे कुछ की बात, संपर्क-क्षेत्र बढ़ाओ, विविध-मिलन से समृद्ध।  

'यह जग मेरा घर' जितना संभव, खुली अक्षियों से दर्शन का प्रयास 
जिन नव-स्थलों पर गमन संभव, जाओ, निज जैसों से और परिचय। 
जहाँ कुछ सहायता कर सकते, करो, अंततः है यह अपना ही हित 
सब कुछ निज ही, मात्र संपर्क-साधन की देर, सब दूरी जाती मिट। 
  

पवन कुमार,
१५ सितंबर, २०१९ समय ११:३९ मध्य रात्रि  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० ३० मई, २०१७ समय ९:३२ प्रातः से)

Monday, 2 September 2019

नवीन-भाव


नवीन-भाव 
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एक नवीन-भाव पल की आवश्यकता, स्थापन्न कागज-पटल 
लेखनी माध्यम, मन-विचार डायरी में, बहिर्गमन से विस्तृत। 

चलो आज नवीनता-वार्ता करते, माना सनातन को पुनरुक्त 
वे ही विचार पुनः-२ उदित, चाहे शब्द-लेखन में कुछ भिन्न। 
नव-साहचर्य से मन-उदय, अनुभव खोले प्रकटीकरण-राह 
बहुदा स्व ही लुप्त, निज उबासी-कयासों से न आते बाहर। 

सच है कि जग अति-विशाल, दर्शन-मनन एक सीमा-बद्ध 
मन-कंप्यूटर प्रोसेसर गति सीमित, अल्प ही काल-प्रकट। 
इकाई बायट प्रति सेकंड, लब्ध समय प्रयोग तो बड़ा संभव
निकट सुपर-कंप्यूटर पर प्रयोग न, कुल काम तो ही शून्य।  

अर्थ यदि गति कुछ कम भी, अधिक समय में बड़ी दूरी तय 
विश्व-कोष में बड़ी संख्या विवरण, पर कुछ से ही परिचय।  
चलेंगे तो दूरियाँ पटेगी, नव-अनुभव ग्रहण, मन-रवें सुदीप्त 
नवीनता स्व-स्थित, समय प्राप्त तो कागज पर भी उकेरित। 

खुले चक्षु-मन से दर्शन-मनन है, कार्यशाला-मोड की उत्कंठा
भ्रमण से नव पथ-स्थल दर्शन, प्रवास-संपर्क से नई-सूचना।   
हर जन पृथक स्थल से, भिन्न सूचना-पुञ्ज, क्यों न करें ही बात 
परस्परता से सघनता बढ़ेगी, जितना जुड़ेंगे उतने लाभान्वित। 

मानव-यात्रा कुछ वर्ष-यापन, कितना मनन-गति से बिताया समय 
एक मोटी पोथी बनते प्रक्रिया में, सभी कुछ तो प्रयोग पर निर्भर।  
कोल्हू-बैल भी गतिमान नेत्र-पट्टी बांधे, वृत्त-गिर्द  करता दूरी तय 
यहाँ नव दिशा-स्थलों से परिचय, अन्यथा तो अपने में ही सिकुड़। 

क्या पथ सुप्राप्ति का या तो बैठे रहें, कुछ पास आऐंगे ही परिचय भी 
यह निज-निर्भर, किनको कितनी अपेक्षा, कितना करते संपर्क ही। 
जलपुरुष निकट तृषित आऐंगे ही, यदि मृदु बर्ताव और भी सुभीता 
उसपर निर्भर कितना रूबरू, कुछ पूछकर सूचना-ज्ञान व लाभ। 

एक सूत्र टूटना पुनः उसे जोड़ना, निश्चित ही कुछ समय-ऊर्जा माँग 
एक द्रुम पूर्व-स्थिति में न गमित, हर पल बदलते रहते हैं मन-भाव। 
तथापि वृहत-ग्रंथ लिखे जाते, एक ही दिवस-निष्ठा से काम न बनता 
अपने को पुनः पथ पर स्थापन, कुछ विचित्रता भी पर काम चलेगा। 

विषय नवीनता मनन-दर्शन में, जो बहु आयाम-प्रतिभाऐं करें युग्म 
मति-कोष्टकों की भी स्मरण क्षमता, अनुपम-रमणीयता करें एकत्र। 
जीवन का तो घटित हो जाना सत्य, समृद्धि कितने उत्तमों से संयोग 
हाँ आज का नवीन भी प्राचीन हो जाएगा, तो भी सदा बढ़ें उस ओर। 

संपर्क-ज्ञान संग विस्मृत, सीमित स्मरण-क्षमता, सर्वस्व न समाहित 
कंप्यूटर की अति स्मरण-क्षमता जैसे 1TB, वह भी शनैः पड़ती कम। 
अनेक पुरानी फाइल-दस्तावेजों, चित्र हटाने पड़ते हेतु स्पेस-लब्धता 
अन्यथा शीघ्र-पूरित सब स्पेस, कितनी हार्ड-डिस्क रखें सब-सहेजना। 

पर समय-तकनीकों संग कंप्यूटर-प्रोसेसिंग क्षमता-मैमोरी भी वर्धन 
चाहे यकायक न दर्शित, नर का बौद्धिक-दैहिक विकास समय संग। 
माना न सम, मोबाईल-फोन, कंप्यूटरों की भिन्न क्षमताओं के मॉडल 
जितनी जरूरत, क्रय-शक्ति ले लो, रूचि-हैसियत अनुसार व्यवहार। 

मानवों में प्रज्ञान की क्या भिन्न अवस्थाऐं, या मात्र निजानुसार प्रयोग 
वैज्ञानिक व कमेरे की बौद्धिक-क्षमता सम, बस एक द्वारा सुप्रयोग। 
बचपन से देखते कुछ भिन्नता लोगों में, जैसे समझना-परिभाषा देना 
शुरू में अल्प, कालांतर में एक का  प्रयोग-त्याग, गतिमय है दूजा।  

यथा प्रयोग, तथा वर्धन, हाँ कभी अति-प्रयोग दुष्परिणाम भी गोचर  
वृतांत सब तरह के, पर निश्चित अप्रयोग से नितांत पड़ जाता ठप्प। 
कार्यशालाओं हेतु लोग यंत्र खरीद लेते, अप्रयोग से पुराने व व्यर्थ  
धन-साधन नष्ट, चाहे किञ्चित-प्रयोग, समुचित तो निश्चितेव श्लाघ्य। 

कोई न इतना निपुण बस जोड़े ही, पीछे मुड़कर भी न देखे संग्रह 
या देख-समझ सुरुचिपूर्ण सृजन, अपनी हर वस्तु की करता कद्र। 

निज-वस्तु संभाल स्व-जिम्मेवारी, हाँ कालांतर में उपयुक्तता घटित 
अमुक काल जैसा न सार्थक, प्रिय-अमूल्य, अब नव-संदर्भ जरूरत। 
फिर सृजनशीलता, नव-भाव संग्रहीता, मूढ़ से प्रवीण में रूपांतरण 
यह भी तुलनात्मक निज संदर्भ में, पूर्ण ज्ञान संदर्भों में अति-दोयम। 

कोई किसी विधा प्रवीण अन्य में अनाड़ी, पर अर्थ न कि मूढ़ है वह  
अर्थ यह भी संभव एक हर जगह न पारंगत, मन-देह की सीमा निज। 
पर न विरोध उन्नति हेतु, कमसकम जहाँ रूचि वहाँ हो प्रयास अधिक 
अन्य-विधा रूचि भी समृद्धि, तो भी पूर्ण का कुछ अंश ही दर्शन संभव। 

फिर अर्थ क्या है हम जैसे भी, कमसकम निकट का करें प्रयोग पूर्ण
आवश्यकता बढ़ेगी तो हाथ-पैर भी मारोगे, क्षमता हेतु पूर्ण तब यत्न। 
अन्य को भी समझा सकोगे -सुवृत्ति दान दो, वृहदता स्व में दर्शन  
जीवन-यंत्र प्राप्त अति कष्ट से, पूर्ण प्रयोग से करें सार्थकता सिद्ध। 

प्रथम-कक्षा छात्र को एक कायदा या शुरू-पाठों की ही आवश्यकता 
लेकिन प्रख्यात विद्वान-गृह तो बहु-विधाओं की पुस्तकों से होता भरा। 
अर्थ कि वह सब काल ऐसा न था, प्रथम श्रेणी से बढ़ पहुँचा यहाँ तक 
भली-भाँति ज्ञात वह अत्यल्प, अनेक ज्ञान-आयाम हैं यावत अस्पर्श। 

कौन मानव-स्वरूप हमारे गिर्द छितरित, सब भाँति के नमूने दर्शित 
सब शून्य से अनंतता के किसी सोपान -तल, कुछ चढ़ ऊपर तिष्ठ। 
ज्ञात अभी बड़ा कर्म अपूर्ण, ऊर्ध्व से ही दूर दर्शन - प्रेरणा मिलेगी 
इसका मूल उद्देश्य अंतः-दर्शन ही, अग्र-ऊर्ध्व बढ़े तो हो संतुष्टि। 

नवीनता सुमृदु भाव बहु-आयाम योगी, मन-चक्षु खोल जिज्ञासु बन
जितना संभव सृजनात्मक बनो, लब्ध काल में अधिकतम  संग्रह। 
प्रखरता आएगी, निज संग अनेकों में सकारात्मक परिवर्तन संभव
लक्ष्य दूर पर मन सुग्राह्य, पैरो में शक्ति, दृष्टि प्रखर, लाभेव अतः।  

आगे बढ़ो अनवरत, योग अनुभवों से, उत्तम तो जाएगा ही ठहर 
जिसकी जब जरूरत प्रयोग कर, धैर्य रखो, सबसे मित्रता-भाव। 


पवन कुमार,
२ सितंबर, समय ६:३२ सायं 
(मेरी डायरी दि० १६ व १७ दिसंबर, २०१६ समय ११ :२८ प्रातः से) 
   

Thursday, 15 August 2019

युग-द्रष्टा

 युग-द्रष्टा
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एक युग-द्रष्टा हेतु अनुशासन जरूरी, बहु-आयाम साक्षात्कार 
सर्व-मनुजता एकसूत्रीकरण दुरह, धैर्य-श्रम व दृढ़ता ही सखा। 

उच्च-लक्ष्यी ऊर्ध्व-पश्यी, स्वप्न संभावना का मूर्तरूप-परिवर्तन 
न स्व-मुग्धता अपितु अंतर्स्थित, ज्ञात गंतव्य निम्नता निर्वाणार्थ। 
एक-२ ईंट से भवन निर्माण, अनूठी परियोजना हो रही साकार 
महद आत्म-बल बाधाऐं स्वयं दूर, पौरुष अनुरूप ही छेड़छाड़। 

स्वार्थ-लिप्त मनुज की क्या परिणति, न चाह वृहद मानव-हित 
लघु-बड़े विषयों में ऊर्जा-क्षय, अधूरा ही बीता जीवन सीमित। 
एक विश्वविद्यालय या देश-निर्माण, कोई एक दिवस-कर्त्तव्य न
अतिश्रम, दिवा-स्वप्न, साहस-ललकार, न मिथ्या प्रशंसा-गृह। 

माना नर-वय अल्प पर इतनी भी न कि महद-आकांक्षा न कर 
३०-४० वर्ष में श्रम से बड़े संघ बने, सत्ता-पूँजी ली अपने कर। 
अनेक संगी बनाए, एक-२ से ग्यारह, महाबल संग्रह पूँजी निज 
हृदय से नर-संग तो वृहत-हित ही, एकता से नव-पथ चिन्हित। 

समग्र-चेतना सह उच्च ध्येय-उत्साह, नर कई कष्टों से निकल 
सभ्यता-विकास मात्र न एक वार-कर्म, प्रतिपल महादर्थ युग्म। 
आदर्श समाज कल्पना, शिक्षित परिवेश, पर्याप्त, पूरक-परस्पर 
वैज्ञानिक सोच, आदर्श नृप-स्थिति, प्रजातंत्र, सब भाँति प्रसन्न। 

 विश्व-विसंगतियों मानव अल्प-विद्या कारण, दूभर प्राणी-जीवन 
व्याधि-अकाल-भूख-अशिक्षा-दुर्गति-वैषम्य-संशय घोर व्याप्त। 
पर निदान हर व्याधि का, हाँ यथोचित शक्ति विषय विचारणीय 
जब बाधा दूर वाहन गति पकड़ेगा, जीवन में सुघड़ता भासित। 

मानव समर्पण हेतु क्या चिंतन, हर आयाम से प्राण आत्मसात 
विश्व-सुपरिवेश संभव, लोग परस्पर भले लगेंगे, होगा सम्मान। 
निवेश-लाभ उचित पर लोभ-विरक्ति, धन दान में हो अनापत्ति 
 सुरक्षार्थ नियम-पालन हो, स्वतंत्रता पर अन्य का पथ अबाधित। 

 निर्मल हृदयों का दायित्व, अब सब विभेदों का निर्मूल-प्रयत्न  
युग-द्रष्टा का केंद्र-बिंदु प्राणी, मानव उसका बस पुञ्ज एक। 
ब्रह्मांड-वासी पर बहु-अवयवों से अपरिचय, बनाऐं क्षुद्र हमें 
प्रथम कर्त्तव्य स्वरूप से योग, जो अपने से उठे महान बने। 

युग-द्रष्टा का कर्त्तव्य प्राथमिकताऐं चिन्हन व प्राप्तार्थ श्रम 
वाँछित संसाधन-उपस्थिति सुनिश्चित, प्रारूप सा समक्ष। 
न अज्ञात-भय अपितु श्रद्धा, परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन  
महद लक्ष्य बड़ा संघ जरूरी, सब अनुज-अग्रज का संग। 

कैसा द्वंद्व यह न अंतः-कूक, जग भूल-भुलैया में ही व्यस्त 
प्रायः नर व्यवधान-पाशित, मात्र गाल बजाने में ऊर्जा क्षय। 
पर उच्च-लक्ष्यी सक्षम विराट स्वप्न, रूपांतरण निजीकरण  
जरूरत विटप-रोपण की, सुंदर वाटिका साकार ही जल्द। 

 धारक-लेखन लक्ष्य भी युग-द्रष्टा स्वप्न, भला यथाशीघ्र-संभव 
जीव-हित में ही सर्व-जीवन समर्पित, प्रतिपल प्रयोग लक्ष्यार्थ। 
मनसा-वचसा-कर्मणा सर्व-क्रिया, स्व व विश्व सुनिरूपणार्थ  
एकात्मता उर-उदित, सर्व-बल संग्रहित, प्रयोगार्थ ही प्रस्तुत। 

ऐ उच्च मन-स्वामी, कहाँ छुपे, मित्रता से भरो विपुल-भाव मन 
निद्रा-तंद्रा से जगा सक्षमतर करो, युग-द्रष्टा सा ले सकूँ स्वप्न। 
ज्ञान-मन में श्रद्धा सान्निध्य, बस साहस दुःस्थिति का परिवर्तन 
आकांक्षा मानव-जन्म सफलीकरण, तुम साथ देओगे अवश्य। 


पवन कुमार,
१५ अगस्त, २१०९ समय ११:५६ बजे  मध्य-निशा 
(मेरी डायरी दि० २१ जून, २०१९ समय ८:५५ बजे से)


Saturday, 10 August 2019

काव्य-उदयन

काव्य-उदयन 
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क्या होंगे अग्रिम पल व गाथा जो इस कलम से फलित 
मन तो शून्य है पर लेखनी लेकर आती है भाग्य निज। 

कैसे निर्मित हो वह काव्य-इमारत, मन तो अभी अजान 
मात्र कलम व कागज हाथ में, शेष सामग्री का है अभाव।
 फिर कुछ यूहीं तो चलता जाता और भर जाते हैं कई पृष्ठ 
    निरुद्देश्य-भ्रमित जीव भूल-भुलैया सी नदी में खेता पोत।   

कहाँ से उदित वे शब्द लेखनी के, जब नहीं अध्याय स्पष्ट 
बस एक विचार कहीं से स्फुटित, उसी के गिर्द दाँव-पेंच। 
पर विषय रचना कैसे फूटती, क्या आती लेकर निज-दैव 
कालजयी कई पद्य-गाथाऐं, पुनः-पुनः करता जग स्मरण। 

क्या वे मनीषी भी सम-स्थिति में थे, चिंतन किया कुछ अग्र 
उद्भवित शब्द स्वयमेव व एक-२ कर निर्मित अति-उत्तम। 
यह शिशु-जन्म सा, अनेक संभावनाओं में से एक मूर्त-रूप 
त्यों ही रचना-निर्माण होता, यद्यपि अनेक आयाम थे संभव। 

तो क्या जन्म  सब प्रत्यक्ष का, कितने को छोड़ अग्र-वर्धित 
एक-२ विचार-बिंदु से ही सर्व-क्रांतियाँ, स्वयमेव रचित पथ। 
फिर क्या हम मात्र हैं विचार-धारक, आकांक्षा शांत-स्वरूप 
दिव्यता स्वतः स्फूर्त, बस उठो, करो तुम उकेरण-निश्चय। 

सब कुछ डूब जाना इस चिंतन में, पार अपने से निकलना 
दृष्टिकोण हो मात्र काव्यात्मकता-रस में, प्रयत्न करने का। 
इंगित तो कुछ भी नहीं होता तो भी अपने को झझकोरना 
इसी झंझावत के उपक्रम में, कुछ उचित ही रचित होगा। 

अद्भुत दर्शन है भविष्य का, जो हमसे कुछ रचवाए जाता 
हम शिल्पकार कुछ काल मात्र के, पर वह शाश्वत रहता। 
उसने देखे हैं असंख्य प्रयोग सृष्टि में, मुस्कुराता रहता बस
जीव सोचता विद्वान-चतुर, पर सब सामग्री प्रकृत्ति-प्रदत्त।  

स्वामी-प्रदत्त आटा-नमक, हम सोचते स्वयं को धनिक  
हमारी अणु-सामग्री तथैव फलित, ऊपर है कदापि न। 
तुम मात्र  विचार-माध्यम उसके व वाँछित अस्त्र-शस्त्र 
प्रेरित करता वह उठो-बैठो व करो एक रचना उत्तम। 

कौन दर्शन-सक्षम पार काल के, किसमें इतना सामर्थ्य 
मनुज सदैव भ्रमित, हमीं चतुर हैं जीवन-चक्र के इस। 
अल्प-बल व अत्युद्दंडता, निज को समझे तीस-मार खाँ    
 व्यर्थ गर्व से जग न चलता, विवेक ही कुछ हल मिलता। 

चिंतन है निज-मर्म ढूँढता, कोशिश कि कैसे हो प्रवेशित 
बेचारा मारा-मारा फिरता, फिर सतत स्वयं से ही युद्ध।  
उसकी सर्व-कृतियाँ निज-तार्किक जीत का ही परिणाम 
श्लाघ्य तो है, क्यूँकि वही सत्य में देह में फूँकता प्राण। 

न मनीषी-दर्शन व वह भी बस कुछ पलों का एकत्रण 
सोचा, कहा, लिखा और हम समझते अति बुद्धिमान। 
कितना ठीक, कहाँ तर्कसंगत, न वर्तमान में कुछ समझ 
मात्र रुचि अनुरूप एक विचार-प्रवाह में, रहता व्यस्त। 

उदयन कुछ शब्दों का, निर्मित करता है अद्भुत संसार 
सर्व-संभावनाऐं निहित पलटने की, सक्षम परम-उद्धार। 
जग-प्राणी स्वयमेव प्रवृत्त, अतः चिंतन कर निज विकास 
काव्य-गाथा ग्रंथ यूँ ही निर्मित, एकचित्त हो करो प्रयास। 

धन्यवाद  और उत्तम प्रयास करो। 
आज अवश्य कुछ सार्थक करो सकारात्मक भाव से। 


पवन कुमार,
१० अगस्त, २०१९ समय ९:३४ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २ दिसंबर, २०१४ समय ९:११ बजे प्रातः से)


Sunday, 21 July 2019

एकाकीपन

एकाकीपन 
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विशाल विश्व नर अकेला, बाह्य-शरण भी अल्प-अवधि तक
तन्हाईयों में खुद ही डूबना, बहुदा प्रश्न कैसे काटें समय। 

कदाचित बोरियत-सीमा तक यह नितांत एकाकी पाता स्वयं
किसके पास जाकर व्यथा बाँटें, अपने में संसार जी रहें सब। 
अंतः-स्थिति सबकी एक सी, कुछ कह लेते पर पड़ता सहना 
एक क्षीणता सी अंतः-गृह, तन-बली होकर भी नर दुर्बल सा। 

बहुदा दर्शन नरमुख सड़क पर चलते, कार्यालय में अकेले बैठे 
खेती-मजदूरी करते, बूढ़े प्रतीक्षा में, बेरोजगार खाली भटकते। 
सब कुछ ढूँढ़ते से, बस कह न पाते, मस्तिष्क तो सदा कार्यरत 
बहुदा व्याज बनाता, मात्र कयास जबकि पता सिद्धि न निकट।  

यह क्या छुपा जो सदा-आविष्कृत, शायद निज कष्टों का उद्धरण
या ग्रन्थित प्रहेलिकाओं का हल-ढूँढ़न प्रयत्न, चाहे हस्त में या न।  
बस भ्रांत-दशा कभी यत्र-तत्र है अटके, जीवन शांति से न निर्वाह 
बस कुछ सुनो-कहो किसी से, नजरिया भी सदा बदलता रहता। 

मानव एक विवेकी जीव, सदैव मनन में चाहे अन्यों को न हो रास 
निज-शैलियाँ में एक गुमशुदा सा, अंदर से सुबकता-उबलता सा। 
कभी प्रतिक्रिया, ध्यानाकर्षण हेतु शोर भी, पर ज्ञान अंतः-अबल 
कभी दंबंग-स्थिति भी बनाता, पर प्रायः अपने से ही नहीं फुरसत। 

नर-समूहों में सहयोग भी दिखता, एकजुटता सी पंक्तियों में चलते
पर जमघट हटते ही फिर अकेले, लोकोक्ति कि अकेले आए - गए। 
जीवन में कुछ मेल-जोल रहता बात कर लेते, मन कुछ बहल जाता 
अंततः स्व में ही लौटना, बहु-नर चहुँ ओर तथापि तन्हा से ही रहता। 

 एकाकीपन-उबरन हेतु परस्पर संवाद की अनेक विधियाँ मानव-कृत 
सामान्यतया एक लौकिक, अतः जब भी अकेला बेचैनी सी अद्भुत।  
कला-संगीत, प्रदर्शनी-गोष्ठियाँ, कार्यस्थल-प्रगल्भ, कलह-युद्ध, प्रवचन 
मित्र-सौहार्द, आदर-रक्षा, मान-मनुहार, हाट शोर-गुल व विभिन्न ग्रंथ। 

लेखन भी अंतरंगता हेतु, एकाकी छटपटाहट, तब उपायान्वेषण 
कोई बने मूर्ति-चित्रकार, रंगकर्मी, कोई दार्शनिक या  वैज्ञानिक। 
सब अंतः से एक तरंगता चाहते, रिक्त क्षणों में जीवन कैसे पूरित 
'दिमाग खाली तो शैतानी घर', बल-समन्वय से मूर्त-निर्माण कुछ। 

मेरे मन की भी एक दुःख-सहन सीमा, अधिकता पर छटपटाहट 
ढूँढने लगता पठन-सामग्री, कुछ देर होता मस्तिष्क और व्यस्त।  
ज्वलंत समस्या यदि मन में तो उपाय भी, किसी-२ को भी छेड़ता 
सदा निज व अन्यों को चुनौती, परस्पर संवाद से ही जग चलता। 

क्या हम जो बहिर्प्रतीत वैसे ही, या अंतः का भी कोई अस्तित्व 
कौन सदा सुलगाता-ललकारता, करता भी उदास-व्यग्र-उग्र। 
कौन यंत्र पूर्ण-विवह्लित है कर जाता, नितांत निराश्रय से हम  
छटपटाते औरों को हैं कष्ट देते, कर्म- संनिरीक्षा, स्व पर प्रश्न। 

प्राणी एक महासमुद्र सम पर थाह अज्ञात, किसी कोण दुबका 
 भला यावत अन्यों से एकजुटता, पश्चात विशाल-लुप्त निर्बल सा। 
किञ्चित अज्ञात वृहद-स्वप्न से, बुद्ध-महावीर से खोज हेतु प्रस्थान 
प्रश्नों के उत्तर यहीं पर गोता लगा रत्न चिन्ह व उठाने का साहस। 

सब मानवेतर जीवों में भी एक मस्तिष्क, आत्मसम कोई मनन 
चाहे हमें पूर्ण समझ नहीं , कुछ तो सदा उनमें भी घटित पर। 
अंतर्युद्ध का मात्र किञ्चित ही मुखरित, गह्वर विपुल सागर सम 
सर्व चिंतन-चुनौती आत्मसातार्थ, सिद्धि कितना उत्तम संभव। 

जीव एकाकी जन्म से आमरण, स्वयं ही झेलने सब कष्ट-व्याधि 
यश-तर्जना, स्वीकृति-मूढ़ता, दृष्टिमान सब प्रयत्न-अभिव्यक्ति। 
'आत्म निखरण-परिष्कार'  उत्तम शब्द, उलझनों से जाना पार
संयुक्त-प्रयास व जग-साधनों से एकाकीपन का कुछ उपाय। 

अतः न क्षोभ-स्थिति, सर्व स्ववत, मिल-बैठ बना मधुर-परिवेश 
जब रिक्त-ऋतु एकांत सताऐ, कुछ कलाप्रेमी सा संवारो निज। 


पवन कुमार,
२१ जुलाई, २०१९ समय ८:३२ संध्या 
(मेरी डायरी १४ फरवरी २०१९ समय १०:२३ बजे प्रातः से) 

Monday, 8 July 2019

आत्म-निरूपण

आत्म-निरूपण 
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क्या है आत्म-निरूपण जीव का, कालजयी सम संवाद 
सर्वांग-रोम हर्षोन्मादित हर विधा से सफल साक्षात्कार। 

पूर्ण-विकास मानस-पटल का, कैसे लघु जीवन में संभव
सीमाऐं विजित हों, अश्वमेध-यज्ञ तुरंग सा स्वछंद विचरण। 
कोई सुबली पकड़ लेगा साहस से, प्रतिकार राजसत्ता का 
 न करो देश-अतिक्रमण, प्रेम से सहेजा हम प्रबंधन-ज्ञाता। 

एक कोशिश अग्र-चरण बढ़ाने की, देखें कितना है संभव 
पल-२ हर रोज बीत रहा, स्वयं से प्रश्न कितने पाए हो कर?
क्या करते, कितना संभव, कैसे भविष्य-पलों का सदुपयोग 
जीवन किस दिशा गतिमय, किनसे संपर्क व स्व-नियंत्रण? 

एक विशाल शैल-राशि के किसी कोण में छुपा लघु हीरक 
व्यर्थ त्याग, अमूल्य लब्ध, ऊर्जा-सदुपयोग है परमावश्यक। 
विपुल जन-समूह सर्वत्र फैला, बहु-अल्प प्रभाव काल नित 
हम भी मन-देह, प्रभावित सदा, कभी कम कभी अधिक। 

क्या विचार-बिंदु जो अनावश्यक त्याग, सार को ही देखें 
प्राथमिकता अल्प-उपलब्ध में, समस्त का ही केंद्र बिंदु में। 
वस्तु-सामग्री कैसे हो विकसित, आना तो होगा तभी सफल 
हर अणु पूर्ण-सार्थक युजित, अपार ऊर्जा-निधि विसरण ?  

कूप में विपुल वैभव-साम्राज्य छुपा, निकालो तो साहस से 
अविश्वासियों हेतु असत्य, पर अनेक खोज में जान लगा देते। 
कैसे संपूर्ण महद उद्देश्यार्थ, बिन मरे तो न मुक्ति-आस्वादन 
द्वारपाल खड़े प्रवेश दुष्कर पर अति-उत्कंठा, न हूँगा उदास। 

चिंतन-कोंपलें फूटने दो, निशा-तिमिर अनावृत हो देगा ही उषा 
घनघोर बदरा, दामिनी डराए, पर उसी के जल से प्राण-प्रवाह। 
बाधाओं से नित सामना, चोट खा-जलकर ही मृदा बनती इष्टक 
एक हीरक कोयले का ही द्विरूप, पर रूप-स्वभाव में भेद महद। 

प्राकृतिक नियम निश्चित अवस्थाओं में, वस्तु-निरूपण है सतत 
भिन्न स्वरूप सर्वत्र बिखरें, निर्माण-पद्धति पुरातत्व को ही ज्ञात। 
क्या निरूपण स्व का भी संभव, अन्य प्रभाव भी अति-सशक्त 
  कैसे स्व को विकसित किया जाए, यह तो स्वयंभू सा किंचित। 

स्व-जनित, अपने से पालन, अपने से ही संहार प्रलय वेला में 
सकल एक बुदबुदा सा क्षणभंगुर,  कहाँ सदा एक रूप में ?
परिवर्तन सतत घटित  स्व का, क्या मैं इसमें आत्मसात पर 
ज्ञात भी तो क्या सक्षम इंगित दिशा-बदलाव में, संभव हित।  

दूर का राही, अनंतता मंजिल, कुछ देर ठहर जाऊँ, गति निश्चित 
मम सीमाओं की भी क्या काष्टा, व क्या वह असीमता-प्रतिबिंब। 
कहते हैं प्रयास-अभ्यास से, जड़मति निरूपण सुजान में संभव 
सब पर भी नियम लागू, फिर क्या कारण कि विकास निम्नतर?

दुनिया में सतत सब बदलाव हो रहें, बिना किसी स्वीकृति के 
मैं भी प्रतिपल बदल रहा, पर इच्छा कुछ अनुकूल हो अपने। 
पर उससे पूर्व ज्ञान आवश्यक, किस मृदु रूप में हो विकास 
विश्व में बहु विचार-धाराऐं, किसे अपनाओगे तुम पर निर्भर। 

यही प्राथमिकता निज लघु स्व का बृहत-संभावनाओं से योग 
ज्ञानान्वेषणार्थ गति आवश्यक, कूप निकट पर उद्यम वाँछित। 
प्रयास होना चाहिए सुमार्ग चुनें, विश्व-दर्शन अभी अति-समृद्ध 
विशारदों ने विमल-चिंतन से पंथ चलाऐं, चुनाव तुमपर निर्भर। 

निरूपण एक निर्मल-सार्थक शब्द, अपनाओ सत्य-निर्वाह में 
जब और बढ़ें तुम क्यों बैठे, पर-छिद्रान्वेषण में व्यस्त अनेक। 
सदैव विश्व-इतिहास दर्शाता कर्मयोगी ही होते हैं चिर-स्मरण 
माना अंत में सब विस्मरित, पर यावत प्राण कर लो अनुभव। 

अनेक धरा-अवतरित, अनेक वर्तमान में, भविष्य में भी बहुत  
एक काल-स्थल में आए हो, कुछ लक्ष्य भी या यूँ ही प्रतिगमन। 
मनुज निज को ही भूल जाता, अन्य की चिंता इस जग में कब 
तव-कष्ट तुम्हारा दायित्व, कुछ कर सको तो साधुवाद के पात्र। 

संसाधन हर पल में उपलब्ध, पर उपयोग सार्थक दिशा में क्या 
आत्म-चिंतन से ही विकास-लड़ियाँ फूटेंगी, कायांतरित हो सदा। 
अरस्तु से मनस्वी जग में, आज पुस्तक 'Ethics' से एक अंक पढ़ा 
विषय साहस-भय का था, नर सब-परिस्थिति अनुकूल कर लेता।

उचित-भय काल-परिस्थिति में उदित होता, न डरने का हो साहस
मूढ़ सम 'जो होगा देखा जाएगा' न ठीक, विवेक से हों सब प्रबंध।
जीवन में अपने से ही अनेक भय, पर उनकी क्या सृष्टि व निदान
खींच लाना उपयुक्त दिशा में ही तो, तभी होगा सार्थक निरूपण।

मम विवेक-मनन उद्देश्य, विकास-संभावनाओं का करूँ अन्वेषण
न किंचित अपघटित हो  पवित्र वस्तु, आई प्रयोग करणार्थ तव।
निज को संभालो, सहेजो, प्रेम करो, उभारो, सब भाँति सुप्रबंधन
 यथाशीघ्र उपयुक्त दिशा चुनो, चल पड़ो पथिक समय है कम।

लिखवा दे मुझसे भी एक बड़ी अवस्था, बढ़ सकूँ सदा अबाधित
अभी तो उलझा हूँ इन्हीं विभ्रमों में, क्या मंजिलें हों चलने को पथ ?
रोबिन शर्मा कहते कोरा-कागज पैंसिल लो, लिखो जो लगे उत्तम
कहते बहुत सरल है प्रयास तो करो, सब कुछ ही तुम्हारे निकट।

मेरी जान-माल रक्षा तुम हाथों में ओ ईश्वर, मृदुतम रूप दिखा दो
अंतः-करण निर्मल करो सब भाँति, प्रकाश से उचित राह दिखा दो।
दिल से प्रयास है एक चिर काल से, जब से जन्मा यही तो रहा सोच
करो कृपा क्यूँ रखते विमूढ़ मुझे, अनेक बैठे अवलोकन में ही रत।

निरूपण संभव जब लक्ष्य ज्ञात होगा, वृहद ऊर्जा का हो संसर्ग
पर ज्ञात है उत्तम दिशा में हूँ, चलता रहा तो पा ही लूँगा कुछ।
स्पर्धा निज की परम रूप से ही, उत्तरोत्तर बनाना अति निर्मल
समस्त साँसत निज प्रयास की, चलते रहो मंजिल है निकट।

पवन कुमार,
८ जुलाई, २०१९ समय १२:३० बजे मध्य रात्रि
(मेरी डायरी दि० ९ अप्रैल, २०१६ से)