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Friday, 21 March 2014

जीवन सार्थकता


जीवन सार्थकता



कैसे सुलेख लिखूँ, बस इस नींद में ही झूमूँ

 क्या करूँ समुचित, बस इसी उलझन में हूँ॥

 

जीवन तो बीता जा रहा, और मैं सो ही हूँ रहा

कैसे कटेगी आयु ऐसे, यह सोच न हूँ पा रहा।

 क्या यह इतना सस्ता, यूँ ही बिता जाए दिया?

या फिर जीने का, कोई सलीका भी आएगा॥

 

बहुत भावुक होकर शब्द ये लिख पा हूँ रहा

क्यों न कर्मयोग-सिद्धांत, अनुकरण हो रहा।

अहसास क्यों न होता, मैं अलाभ में हूँ शायद

और क्यों अधो स्थिति की, अनुभूति होती न॥

 

बस सोना ही जीवन, या कुछ आगे भी बढ़ना

क्या आत्म-वंचना के अलावा, और भी पाना?

तो क्यों न तय करते समय, स्व-उद्धार हेतु भी

 तब गुनगुनाओ, अट्ठाओ या ग़मों संग रो लो ही॥

 

बात बड़ी हो करते, परंतु कर्म तो महान नहीं

साथ मन-कर्म भी जोड़ो, तो सार्थकता होगी।

जीवन के वक्र-पथों में, कुछ निस्वार्थ-क्षण ढूँढ़

अन्यथा लगेगा कि, कभी समय मिला है ही न॥

 

दुर्भाग्यपूर्ण होगा वह पल, जब होवोगे रिक्त

जब उपलब्ध न पास समय-ऊर्जा, बल-बुद्धि

और शायद लिखने हेतु, ताज़ा याद भी नहीं॥

 

मनुष्य बड़ा भुलक्कड़, अतः है आवश्यकता

कि हर क्षण को अक्षर-कैद कर जाए लिया।

हर पल को अपने, पूर्ण रूपेण लिया जाए जी

ताकि कोई हसरत न रहे, हम जिए ही नहीं॥

 

महानर तो संग हैं, पठन-मिलन-वार्ता से कुछ भी

पर उनकी क्षमता, मुझ स्वयं में तो विकसित नहीं।

शिव खेरा निज कृति 'You Can Win' में हैं बताते

तथापि प्रभाव उसका, पढ़ते हुए तो रहता ही है॥

 

फिर मैं क्या हूँ, अवलोकन तो न आजतक हुआ

परिभाषा-यत्न किया भी तो, पर समझ न पाया।

किंचित इस आत्म को, कुछ ज्यादा न हूँ जानता

अतः अन्य सूचना-तंत्र पर ही मात्र निष्ठा करता॥

 

तथापि यह जीवन-लाभ, वरदान को सहेज लें

और उसे एक निष्णात सम समुचित प्रयोग लें॥



पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 12 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 13.04.1999 से )  
  


Thursday, 20 March 2014

एक इच्छा

एक इच्छा 


क्यों नहीं मैं इस मन को मथ ही पाता

 झाँककर इसकी गहराई समझ पाता?

 

क्यों है सूक्ष्म इसके सोचने का आलम

क्यों न किसी गूढ़ चिंतन में रम जाता?

 

चिंतन क्या है, इसी परिभाषा में तो डूबा

 क्यों न कदम शुरुआत के बढ़ा हूँ पाता?

 

पंछी- मानिंद उड़ने की क्यों न कोई चाह

 क्यों न निज को एक विद्वद्जन बना पाता?

 

एक नाम होता है चिंतक और मन्मथ दास

पर अपने को उन-अनुरूप न बना पाता॥

 

तो ले ही लूँ सहारा मैं, जगत-मनीषियों का

निज को उनका ही राह-पथिक सा पाता॥



पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 18:13 सायं 
(मेरी डायरी दि० 07.12.1998 से ) 

नया सवेरा

नया सवेरा 


ऐ मेरे मन, तू कुछ सुरीला- मधुर गा तो ले जरा

कभी ना हो कोई, रुक-बैठने का तेरा माजरा॥

 

चलने में रहे इच्छा, न थमकर कभी बैठ जाने में

हरेक से प्रेम-रिश्ता, सदा मिल हँसकर सभी से॥

 

लगन-श्रम दामन न छूटे, कोई स्वप्न न रहे अधूरा

रात में बहु-ख्वाब जगें, पूर्णता हो भरपूर तमन्ना॥

 

आगे बढ़ना ले लो संग, विवेक आए मन में बहुत

 कभी न भूलूँ कर्त्तव्य, सदा बढ़ता चलूँ सत्पथ पर॥

 

माँ शारदा की अनुपम कृपा, गुह्यों का जानूँ रहस्य

अगर ज्ञान उनका हुआ, फिर नया सवेरा है नित्य॥

 

सब ओर के भय मिटा, मानवता नर-निकट लाऊँ॥



पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:44 प्रातः 
( मेरी डायरी दि०  22.02.1999  से )

चलना ही जिंदगी


चलना ही जिंदगी 


आज फिर था देखा ध्यान से, उस शख़्स को

हमेशा सी वही बोझिल आँखें व थकी बाहें॥

 

सदा कुछ सोच रहा, वह फालतू दुनिया हेतु

पर यदि पहचाने मैं वह न, जो जमाना सोचता

बन जाए एक बल, जिससे जग झुक जाएगा॥

 

फिर हम हैं ही क्या, सिवाय अपनी सोच के

या फिर वे हैं, जो दूसरे हमें निर्धारित करते।

परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण, निश्चित करने में

लेकिन प्रभाव निश्चित ही बहुत महत्त्वपूर्ण है॥

 

फिर परिस्थितियाँ भी तो इतनी कमजोर नहीं

मुझे तो हर शख़्श, संपूर्ण नजर आता है ही।

दुविधा वह दूसरे पूर्ण से मिलकर नहीं जुड़ना

अपितु स्वयं जीतने हेतु ही लड़ जाना चाहता॥

 

पर जीतना तो वही, खुद पर हो भरोसा जिसमें

रुकना न जिंदगी में, चाहे कितनी बाधा आऐं।

जिंदगी यूँ ही न रुक जाती, किसी भी मोड़ पर

बशर्ते कि बगैर थके बढ़ता ही चला जाए बस॥

 

यदि चलते रहोगे तो, जरुर कुछ दिखेगा नव

पर नहीं चलना, कोल्हू के एक बैल की तरह।

तुम विवेक, श्रम, सच्चाई का छोड़ना न दामन

फिर देखना कि सारी विजय ही तो हैं निकट॥



पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:08 प्रातः 
( मेरी डायरी दि० 05.10.1998 से )   

Tuesday, 18 March 2014

समरसता

समरसता   


त्रासद समस्त मानवता, और तू प्रगाढ़ है सोया

त्राहि-२ सर्वत्र व्याप्त है, ऐसे में तू खोया कहाँ?

 

क्या तुममें पीड़ितों को समझने की संवेदना है

और क्या समझकर कुछ करने की भावना है?

क्या कथन है तेरा, इस त्रस्त मानवता के लिए

सदा लेता रहेगा, या कुछ दे भी जायेगा फिर॥

 

सचमुच लोग बहुत दुःखी, विविध व्यवधानों से

पर सब जिम्मेवार न अपनी स्थितियों के लिए।

यह सामाजिक ढाँचा भी, कहीं अपराधी ज्यादा

क्योंकि इससे तो निर्बल अधिक सताया जाता॥

 

क्यों बहु भेद दैहिक- कर्म व मानसिक- कर्म में

क्या प्रथम को खटना ही, कुछ कम भूख लगे है?

क्यों न मापा जाता है उसका श्रम, बहु-मुद्राओं में

और क्यों नहीं वह जी पाता, आदर की जिंदगी में?

 

फिर कौन बतायेगा कि, किसको कितना चाहिए

मेहनत- औजारों को बहु-कुशल बनाने के लिए?

कौन भरेगा अर्द्ध- भूखे पेट व आवश्यकता-पूर्ति,

मुक्ति नंगे-पीड़ितों की, जो कुछ मांगने हेतु जीते?

 

'समता' का सिद्धांत तो, प्रकृति में उपलब्ध नहीं

छोटी मछली ही बड़ी मछली का भोजन बनती।

किंतु कैसा लगे जब होगी, ग्राह्य किसी मगर का

तो फिर अनुभव, एक निर्दय होना कैसा लगता?

 

तो ऐ दुनिया के मानवों !, सबको अपने संग लो

डार्विन-सिद्धांत को लोलुपता-बहाना न बनाओ।

कोशिश करो सब उठें, साधनों में बराबर भागी

उनमें भी जगे अनुपम परम विकास-अनुभूति॥

 

हम कितने महामूढ़, और वे कितने बुद्धिमान हैं

या कितने अयोग्य, व हम कितने युक्तिमान हैं?

क्यों यह पैमाना लगाते, जबकि तुमको भी ज्ञात

पूर्णज्ञान का कितना स्वयमेव जानते तुच्छ भाग?

 

किंतु निकटवर्ती के किंचित अधिक जानने पर

शायद तुम स्वयं में गौरान्वित अनुभूत करते हो

पर क्या यह संकेत न है मानसिक दासता का॥

 

तो मेरे भाई आओ !, सभी जनों को गले लगाओ

यदि ज्ञान है तुममें तो, सभी में दीपक जलाओ।

फिर अगर ज्ञान तुम्हारा, उनमें भी है समा जाए

तो शायद कुछ गौरान्वित होने का कारण बने॥



पवन कुमार,
18 मार्च, 2014 समय 11:07 रात्रि
( मेरी डायरी दि० 13.12.1998 म० रा० से ) 

Sunday, 16 March 2014

कुछ बातें

कुछ बातें 


कुछ तो मैं लिखना चाहूँ, पर समझ नहीं पाऊँ

लगता बस यूँ कहीं, अपना वक्त तो न गवाऊँ॥

 

बातें तो बहुत सी, जिनका हो सकता है जिक्र

पर यह नींद भी मुझे बाँहों में लेने को उत्सुक।

मस्तिष्क-कपाट भी, उतारूँ होने को पूर्ण बंद

और मेरे मन-आँगन में अँधेरा भरने को तत्पर॥

 

और ऊपर से निद्रा-रानी भी निराली बिलकुल

पहले आगोश में लेती, नचाती स्वप्नों में फिर।

कभी-२ व आजकल कुछ भयावह ख्वाब-दौर

और असहजता में घबरा सा जाता हूँ डरकर॥

 

प्रश्न है कि, क्यों स्वयं से ही भयभीत हो जाता

क्यों न मेरे आँगन भी, संग सुहाने सपनों का?

क्यों नित तड़पन है, निज आतंरिक-वेदना से

और न संभाल पाता, स्वयं को इस कंपन से॥

 

जितना सोचता, उतना फँसता ही चला जाता

गुनगुनाना तो चाहता, लेकिन बेबस हूँ पाता।

मन भी तो इतना अबोध न है, कि जाने नहीं

पर यह दिल तो राजा है, और मानता नहीं॥

 

पर यह पीड़ा भी तो कोई कमतर तो नहीं है

किंतु इससे बड़ा घाव व दर्द भी तो नहीं है।

क्या समाधान-हल संभव, क्या दवा इसकी

कोई उत्तम वैद्य मिलें तो, दाम लूँ किसी भी॥

 

परंतु तड़पना सा बन गया, कुछ नियति मेरी

नहीं तो फिर, ऐसी भी क्या थी बड़ी मजबूरी।

जितना है बिछुड़ना-विरह, उतनी बहु वेदना

मुख शायद न बोलें, पर क्यों दिल खामोश ?

 

मैं कोई खुदा तो नहीं, और न ही कोई दवा

पर इतना समझ ले, एक झोंका हूँ हवा का ।

तो जीवन सफल हो जाये, और तर जाऊँगा

न तो तेरे गम में बस, जिंदा ही मर जाऊँगा॥

 

कौन समझाऐं यहाँ फिर, कहीं गैर नहीं हैं

सब फिर अपने, अगर मन में मैल नहीं है।

पर नहीं ऐसा, सब इतना शीघ्र जाऊँ भूल

समय लग ही जाता, मैल को जाने मैं धुल॥

 

ये बंधन जटिल, आसान नहीं है कोई तोड़

इस तरह की बातों का हल नहीं है 'छोड़'।

कहाँ तक भागूँगा, कोई जगह भी तो नहीं

बस यूँ ही निरुद्देश्य भटकन फितरत की॥

 

डर-भावना-तड़प, ऑंखें मीचना कपोत सी

पर ये तो हैं भय-परछाईयाँ सच्चे दिल की।

फिर भय भी तो यहाँ किसी और से नहीं है

खुद का खौफ ही तो सर्वाधिक डराता है॥

 

पर यहाँ डरने से भी तो कुछ होने वाला नहीं

सकारात्मक दृष्टिकोण भी  जीने हेतु जरूरी।

क्योंकि यही सुभाव तो, हम सबको बचाएगा

इस दुष्कर डगर में भी राह यही दिखायेगा॥

 

निकल मौत-चंगुल से, जीवन की ओर बढ़ो

जिंदगी जैसी समक्ष आए, इसे जीना है तो।

डर निकालना होगा, बाहर आना ही पड़ेगा

 फिर खुलकर जीना ही पड़ेगा, जीना पड़ेगा॥

 

अहसान इतने तो, इस खुद पर तू करता जा

कि निर्मल-गर्व हो अपने को अपना होने का।

जीवन को इतना तो, सौम्य-कोमल जा तू कर

एक स्वच्छ-निर्मल परंपरा भी बनें अनुरूप॥

 

'उदाहरण' बन जा, न हो वचन-आवश्यकता

कर कार्य ऐसा, कि बन जाए स्वयमेव प्रेरणा।

बोलने से अधिक महत्त्व करने का, चलने का

 वही राह एक पथ बन जाती, चाहने वालों का॥

 

फिर तुम जिम्मेवार हो, खुद के 'स्वयं' के लिए

कर्त्तव्य निबाहो, जितना कर सकते कर जाओ।

राह कितनी भी कठिन हो, निकल पार जाओगे

पैर थकें, घुटने छिलें, बस चलते तुम ही जाओ॥

 

इस 'महाजीवन' से कुछ तो विराट सार निकालो

खुद को जरा फिर समेटना, व सँभालना सीखो।

अपनी उपलब्ध-ऊर्जाओं की मात्रा, सँवारो बहुत

उसको बदल दो, निज भरे-पूरे उद्देश्यों में तुम॥

 

फिर यह जीवन ही क्या है, व तुम्हारी भूमिका ही

नचिकेता से विवेकानंद तक के समक्ष प्रश्न ये हीं।

मैं स्वयमेव ब्रह्म या उसका अकाट्य अंश हूँ एक

विभिन्न प्रचलित लोक-मान्यताऐं हैं सन्दर्भ में इस॥

 

जगतगुरु शंकर 'अद्वैत' बतलाते, तो रामानुज 'द्वैत'

एक बोलता है जग माया, दूजा इसे कहता सजीव।

कबीर जग को माया कहे, पर व्यवहार भी सिखाए

पर ये तो सक्षम गुरु थे, मेरी क्या विषय-धारणा है?

 

यही प्रश्न हैं बड़े-२ कि, जग पर मेरा क्या प्रभाव है

क्या तुम प्रभाव चाहते या स्वयं प्रभावित हुए जाते।

पर तुमको भी, निज जीवन का दर्शन ढूँढ़ना होगा

जीवन को एक खेल न समझ, इसे जीना ही होगा॥

 

मनुज जन्म लिया है, थोड़ी पढ़ाई भी की उसपर

इन्हीं संसाधनों से स्वयं को, महान बनाओ फिर।

अपने को ठीक चलना सिखा, स्वयं-राह दिखाओ

खुद को कदापि जगत-अहसानों तले न दबाओ॥

 

महाजनों से लेकर सुप्रेरणा, मैदान में निकल पड़ो

यावत न मिले निश्चित गंतव्य, बढ़े चलो-बढ़े चलो।

महा-लक्ष्य ही जीवन का हो, ऐसा तुम करो मनन

तब मत चिल्लाना कौए ज्यूँ, व बनो धैर्यवान तुम॥



पवन कुमार,
16 मार्च, 2014 समय 3:09 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 13.01.1998 समय 12:50 म० रा०)

Saturday, 15 March 2014

उसके प्रश्न और मेरे उत्तर

 उसके प्रश्न  और मेरे उत्तर 


उसने पूछा क्या करते हो, मैंने कहा क्यों पूछते

जब पहले ही निद्रागोश जाने की हूँ प्रतीक्षा में॥

 

सचमुच ही एक बहुत अद्भुत, अंदर की बात है

इस नींद और मस्तिष्क का एक घोर युद्ध सा है।

शरीर की थकान कहती है, कि मैं सो ही जाऊँ

पर मन और कहता, कि कुछ करके ही सोऊँ॥

 

चाहे उनींदी आँखें पूरी खुल भी न रहीं, तथापि

अवचेतन मन से एक क्रांति-कार्यवाही है जारी॥

 

उसने पूछा, मेरे भाई कि जीते ही क्यों हो ऐसे

जब चहुँ ओर अनेक लोग नित मरे जा रहे हैं।

मैंने कहा, समुचित मुक्ति हेतु ही तो जीता हूँ

ताकि मृत्यु बाद यह न लगे कि जिया ही नहीं॥

 

उसने पूछा, क्यों नहीं पढ़ते हो जीवन-पुस्तक

मैंने कहा कि ऐ भाई, करता तो हूँ बहु प्रयत्न।

पर हाथ से यह छूट जाती, पुनः यत्न हूँ करता

शनै पढ़-समझने का कुछ आदी हो जाऊँगा॥

 

उसने कहा, तुम कितना बचपना और करोगे

मैंने कहा, दुनिया में सब यहाँ बच्चे ही तो हैं।

संभवतया कुछ थोड़े कम हैं, और कुछ ज्यादा

और फिर क्या एक बच्चा होना, इतना है बुरा?

 

फिर उन बचपन की शोखियों का क्या होगा

काश ! मुझमें वह बालसुलभ रहती जिज्ञासा।

तब ज्ञान के मार्ग पर लगातार बढ़ता ही जाता

मैं स्पॉन्ज बन जाता, विद्या-द्रव सोखता रहता॥

 

उसने कहा, ऐसे क्यों विचारते से मौन बैठे हो

मैंने कहा, यह सीधा खड़े होने हेतु ही बैठा हूँ।

ताकि इससे फिर, और अधिक स्फूर्ति आएगी

और मैं जब सतत चलता- बढ़ता जाऊँगा ही॥

 

उसने कहा कि कभी अंतरिक्ष-सैर की है क्या

पृथ्वी-जहाज पर बैठ अनंत यात्रा-सुख लिया?

मैंने कहा कि भाई अभी मात्र सुना ही, काश !

आनंदित होता, यदि कुछ अनुभव कर पाता।

 

उसने कहा कि चलो, कुछ उत्तम बता जाओ

और फिर यदि चाहो तो, बेशक ही सो जाओ॥

 

तब मैंने कहा, भाई तुम यूँ प्रेरित किए जाना

इन हाथों से कुछ शब्द रोज लिखवाते रहना

ताकि मैं जी सकूँ अपना व बनकर तुम्हारा॥



पवन कुमार, 
15 मार्च, 2014 समय 11:27 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 11.12.1998 से )