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Thursday, 3 July 2014

विरह-स्मृति

विरह-स्मृति 


यह घोर रात्रि-सन्नाटा है, नींद भी न रही आ

बर्फानी सर्दी का आलम, ऐसे में तू है कहाँ॥

 

कितना अकेला हो जाता हूँ, मैं यहाँ तेरे बिन

ऐसे लगता कि देह से आत्मा ही गई निकल।

यह प्राण तो फिर भी, जैसे चलता ही है रहता

लेकिन चक्र में, जीवन का सुख-स्पंदन कहाँ?

 

महफ़िलें तो अनेक सजती, मगर मस्ती कहाँ

रूखा जीवन है, इसमें जीवन-हरियाली कहाँ?

शायद बियाबान में, सूखे ठूँठ सा निस्पंद खड़ा

पवन-हिलौरों का, गुदगुदाहट-अहसास कहाँ॥

 

जब तू पास होती, तो लगता मुस्कान यहीं है

लेकिन अब तो यह अहसास भी संग नहीं है।

जब तू अपनी बात कहती है, मीठे अन्दाज़ से

तो दिल को अंदर से शुकून सा मिल जाता है॥

 

फिर कवि भी न हूँ, निज हृदय कर दूँ प्रस्तुत

पर सच कि बड़ा उदास हो जाता हूँ तेरे बिन।

ये साँसें चलना, घड़ी की टिक-२, सब एक सा

जैसे समय बिताने हेतु ही, सब कर्म हो है रहा॥

 

मैं तुम्हारी सुनहली यादों में, हूँ खोना चाहता

किंतु पूर्ण-लुप्त हो जाने की, वह हिम्मत ना।

फिर तुमसे बतियाने को दिल तो बहुत करता

लेकिन संकोच व स्थानों की दूरी बनती बाधा॥

 

फिर क्या हूँ, तेरा नाम भी ठीक से न ले पाता

अपने-तेरे रिश्ते की दृढ़ता भी न देख हूँ पाता।

बस चला जा रहा हूँ, मानो पैरों को करना कर्म

निज मन में रस-काव्यात्मकता, नहीं अनुभव॥

 

फिर मैं क्या और क्यों, ऐसा लिखे जा हूँ रहा

कुछ बात भी, या सफे काले करे जा हूँ रहा।

या फिर मन की बात, ठीक लिख न पा रहा

 या सोने को बेताब, सिर का बोझ ढ़ोए रहा॥

 

अभिन्नों को भी निज, कहने में हकला ही रहा

और फिर उन्हीं की जुदाई में, रुदन कर रहा।

 विकट कष्ट-अहसास, बहुत अंदर तक है गया

 स्वयं में निज-अन्वेषण का प्रयास कर हूँ रहा॥

 

संसार में सब कुछ है, पूर्ण निश्चित तो न हूँ पर

निज विषय में भी भ्रमित, जग तो अति विपुल।

उस पर तुमसे बिछुड़ने का गम ज्यादा है बहुत

पर धैर्य धरो, मिलन-घड़ी अब ज्यादा नहीं दूर॥

 

तेरा नाम लेकर ही इस सफे को करता हूँ बंद

 आशा करता कलम, सुलेख शुरू करेगी कुछ।



पवन कुमार,
3 जुलाई, 2014 समय 23:18 रात्रि 
( मेरी शिलोंग डायरी दि० 16 नवम्बर, 2000 समय 00:03 म० रा० से )


Saturday, 28 June 2014

सावधान

सावधान 


कुशलता इसी में है, यथा-संभव निपुण कार्य करो

महानता इसी में है, कि अग्रसर हो बढ़ते ही रहो॥

 

तुम क्या जानो, कार्य करने में कष्ट होता है अति

अच्छे परिणामों हेतु, अनेक रातें जागनी हैं पड़ती।

मात्र खुश-फहमी में नहीं, क्या कुछ किया अधिक

एक अनुसन्धान हेतु, प्रयोग ही हुए हैं सहस्र-लक्ष॥

 

तुम बिन शुरू किए ही, ऐसे क्यों मान जाते हो हार

क्या अयत्न ही किसी को, पूर्णता का दर्ज़ा है प्राप्त?

जीवन में कुछ भी लाभार्थ, करनी पड़ेगी ही मेहनत

 व्यर्थ कलह- चिंता- शोक से तो, निकला न है श्रेष्ठ॥

 

ऐसा तो कुछ भी न किया, जो सुश्रेणी में योग्य रखे

क्या किसी तुला में बैठने की, मेरी उपयुक्तता है?

या लगभग बराबर है, जगत में आना या नहीं आना

 श्रम-निष्ठा-निपुण मनन से, स्तर कुछ बढ़ जाएगा॥

 

विद्या-स्वाध्याय, क्रिया-योग से, मुक्ति संभव लाभ

 परंतु मैंने इस दिशा में, दर्शन-यत्न किया है मात्र।

 प्रयोग तो किसी भी भाँति के, अभी तक सोचे न हैं

 फिर इस दीर्घ-जीवन में, ठीक गुजर होगा कैसे?

 

फिर क्या अभिलाषाऐं, बांधी जा सकती हैं स्वयं से

कब यह अर्जुन, पार जा ही सकेगा विडंबनाओं से?

 कब वह गुरु कृष्ण आकर, इसे गीता-पाठ पढ़ाएगा

और हृदय में आ, इसे मधुर प्रेम-बाँसुरी सुनाएगा?

 

माँ सरस्वती आकर ही, कला-विद्या दान देगी कब

कब दक्षिणमूर्ति, निज विवेक से करेगा आकर्षित?

कब मैं उन श्रेष्ठ राहों पर, चलने में बनूँगा ही सक्षम

 जिन पथ पर बहुदा चला करते हैं महा जग-पुरुष॥

 

कब मैं अपनी ही बहु-कमजोरियों पर विजयी हूँगा

कब उस महावीर सम एक जितेन्द्रिय बन सकूँगा?

कब यह वाणी मेरे हृदय का सद-अनुसरण करेगी

 व कब मुझमें सब हेतु एक सहकार-दीप्ति जलेगी?

 

कब मेरे मनसा-वचसा-कर्मणा, एक से होंगे उत्तम

कब एक जिम्मेवार-विश्वनीय नागरिक सकूँगा बन?

कब विश्व-दर्दों में से कुछ कम करने में हूँगा सक्षम

 कब निज क्षुद्र-स्वार्थों से उठ, सब हेतु हूँगा प्रस्तुत?

 

कब मुझे अपने सब कर्त्तव्यों प्रति, पूर्ण-ज्ञान होगा

 कब निष्ठ-वरिष्ठों में कुछ श्रेयष स्थान बना सकूँगा?

 कब इस हृदय से वितृष्णा-ज्वाला, निकलेगी बाहर

 और कब अन्य की बुराई में आनंद लेना दूँगा छोड़?

 

कब जरूरतमंद कुटुंब की सहायता में हूँगा सचेत

और बुज़र्ग माँ-बाप की सेवा में निरत हूँगा अडिग?

कब उनके दिल को एक मृदुल वाणी से दूँगा सुख

और कब उनका वर- आशीर्वाद पात्र सकूँगा बन?

 

बस ऊँचे बोल से ही, कुछ बड़ा लाभ न है संभव

अन्य का हृदय को जीतना भी, एक कार्य दुष्कर।

पर जब उन्हें लगेगा कि सत्य में ही मैं हूँ योग्य इस

वे भी अपने व्यवहार में छोड़ेंगें कुछ भी कसर न॥

 

इस अनंतता-दौर में, एक अवसर मिला बहने का

पहचान बनाने का, समय पर छाप छोड़ जाने का।

हाथ पर हाथ धरे बैठने से तो असंभव ही सब कुछ

वही पुराना सफलता गुह्य, 'परिश्रम-बुद्धि' ही बस॥

 

जन्म न मिलता बारंबार, यदि हो भी तो पता नहीं

कुछ का विषय में दावा, किंतु समझ से परे मेरी।

अवश्य यदि इस जीवन में, मूल-उद्देश्य लूँ समझ

फिर जगत में आना-रहना हो जाएगा ही सफल॥

 

बहुत बार समझने का प्रयास किया, विषय में इस

कदाचित शायद मंज़िल निकट भी, आया हूँ कुछ।

किंतु जैसे पाठ स्मरण में, निरत अभ्यास ही चाहिए

अतः अनवरत-प्रयत्न की, यहाँ भी आवश्यकता है॥

 

जैसे पूर्व-कथन, चीजें इतनी आसान भी न होती

फिर विषय ऐसा, मनीषियों ने ज़िन्दगी लगा दी।

मैंने तो मात्र सोचा ही, नहीं किया बड़ा अभी यत्न

और अभी से ही, निश्चिन्त-शांत हुए लगते बहुत॥

 

आपत्ति नहीं, छद्म निश्चिन्तता-दंभता देखकर भी

किंतु बहु-प्रसन्न हूँगा, जब दिखोगे जिम्मेवार भी।

तब मंज़िल पाने हेतु, जुटाने लगते सब वस्तु तुम

जिनसे निश्चतेव बड़ी मंज़िल, व सफलता सुलभ॥

 

अभी हाल में, इस वर्ष के ज्ञानपीठ-पुरस्कार मिलें

निर्मल वर्मा व पंजाबी लेखक हरबंस सिंह जी को

इनमें से एक वर्मा जी को मैंने थोड़ा-बहुत पढ़ा है।

उनमें हुनर है, मानव-अंतः की गव्हरता मापने का

परिष्कृत हिंदी-भाषा निश्चितेव प्रभावित करती है॥

 

उनके ही एक छोटे भाई हैं, श्री रामकुमार वर्मा जी

कदाचित वे एक सुप्रसिद्ध व चित्रकार हैं यशस्वी।

'नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट्स' में मैंने उनके

कई चित्र-कार्य देखें, निशंक अति-प्रशंसनीय हैं॥

 

लेकिन अपनी क्या कहूँ, जो हर क्षेत्र में है अनाड़ी

कुछ अधपका विषय-ज्ञान ही, बस है जमा-पूँजी।

वह भी शायद अच्छी, यदि है दैनंदिन निरत वृद्धि

पर जितना अपेक्षित, उतना कर पा रहा हूँ नहीं।

 

क्या न देखते, कि एक-२ ईंट से महल बन जाता

और हरेक नन्हीं बूँद से तो, महासागर भर जाता।

हर रहस्योद्घाटन से मूर्ख, महाज्ञानी जाता है बन

प्रत्येक कदम से, लोग बड़ी दूरी लेते हैं तय कर॥

 

फिर क्या निष्कर्ष, सब दीर्घ तर्क-संवाद का इस

शायद अपने प्रति ईमानदारी ही प्रथम है कदम।

मुझे तो फिर, अपने मन की ही कुछ थाह है नहीं

 कहाँ से कहाँ तक अति दूर यह ले जा है सकती॥

 

निपट अज्ञानी बना रहकर, जीने में होती है पीड़ा

सच्चा गुरु कहाँ, ऊँगली पकड़ चलना दे सिखा।

कठिनतम डगर में भी, मुस्कान-पाठ सिखलाए

और स्व पैरों पर सीधा खड़ा होने की हिम्मत दे॥

 

'स्वयं-सिद्धा' एक शब्द है, प्रयोग भी किया कर

फिर स्वयं-अनुभव से अच्छा, कोई न है शिक्षक।

फिर जो भी आस-पास, कुछ उचित बुद्धि प्राणी

 उनसे यथासंभव लिया करो, सन्मार्ग-शिक्षा यही॥

 

विषयों को परखना सीखो, फिर विश्वास करना

प्रथम करो स्वयं पर निष्ठा, व निज ढ़ंग से जीना।

पूर्व कि अन्य प्रभाव हों, निज क्षेत्र करो बलशाली

यद्यपि सुगुण-ग्राही बनने में, कोई न है आपत्ति॥

 

खुद से क्या बड़ी आशा है, हर प्रश्न का उत्तर देगा

यदि कह सको कि खुद पर विश्वास है, विश्वास है।

और कठिन परिस्थिति में भी, जी सकते स्वयं संग

निश्चय ही खुद व अन्यों के, हो कुछ विश्वास-पात्र॥

 

तो खीझ छोड़ो, मुस्काना सीखो व उचित-आचार

तब तुम सभी के चितेरे बनोगे, और तुम्हारे सब।

अपने-पराए व विधर्मी के निकल जाऐंगे सब भेद

सकल जग की ज्ञान-राशि, होगी तव कर्म-क्षेत्र॥

 

धन्यवाद।


पवन कुमार,
28 जून, 2014 समय 19:10 साँय 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 11फरवरी, 2001 समय 01:05 बजे म० रा० से) 

Thursday, 26 June 2014

कुछ विचित्रता

कुछ विचित्रता


विचित्रता की बात करूँ, जो हो कुछ विरल व निराली

बहुत कुछ अद्भुत यहाँ, पर ध्यान हमारा जाता नहीं॥

 

हर पल बदलाव समक्ष नेत्रों के, तथापि क्यों न रोमांच

विविध ध्वनियाँ खग-वृंद की, मोटरों का स्वर तो भिन्न।

निज साँसों का चलन भी, विभिन्न स्वरूप है लेता रहता

कभी तेज़, सामान्य या कभी अल्प गति यह चल रहा॥

 

एक दिवस और रात्रि में ही हम, कितने रूप हैं देखते

मनीषियों ने अष्ट-प्रहर बना दिए, प्रति ३ घंटे समय के।

लेकिन उनके अंदर भी, कितनी विभिन्नताऐं छिपी हुई

हर दिन की अल्प-भिन्नता से, शनै-शनै ऋतु बदलती॥

 

माना कुछ लय प्रकृति में है, अपने को दुहराती सी यह

पृथक गगन-वर्ण देखकर, क्यों न पुलकित होते हैं हम?

लाल-सुनहले धूप-रंग, ऊष्मा-मात्रा बाँटते क्षणों में भिन्न

 कुछ समय एक सम प्रतीत, लेकिन सत्य में होता अंतर॥

 

हम विस्मित इन रंगों से, उससे ज्यादा स्व-अविवेक पर

क्यों न वृहद प्रकृति देख होते हैं लाभान्वित-प्रफुल्लित?

किंचित जीवन-रुक्षता ने, बाहर देखना करा दिया बन्द

किंतु आवश्यकता जीवन में, करने को नवीन अनुभव॥

 

तुम वृक्ष-पल्लवों का वर्ण देखो, यूँ बदलते हैं नित-दिन

शिशु पत्ते शनै बड़े होते हैं, टूट भी जाते पीत बनकर।

तरुओं की बाह्य-छाल देखो, विभिन्न स्वरूप लेती जाती

कभी चींटियों का घर, निरंतर बाहर ही धकेली जाती॥

 

हर क्षण वृद्धि-क्षय के हैं व सब शनै उस मिट्टी में मिलें

उस मृदा के भी अपने अंतः, अनेकों रूप समाए हुए।

विभिन्न किस्में-गुण व मिश्रण, अन्यों से पृथक हैं बनाए

फिर स्थान-२ की विभिन्नता तो, हमको चुंधियाए हुए॥

 

कहीं ऊँचे पर्वत-पहाड़ी, मैदान समतल मिलते हैं कहीं

कहीं मरुस्थल-टिब्बें, कहीं झरने-झीलें हैं लहरें मारती।

कहीं नदी-नाले-हिमसर, व खाड़ी-महासागर हैं विस्तृत

कहीं अतिवर्षा, सूखा, तो कहीं फैली हुई विस्तृत बर्फ॥

 

कहीं घन-वृक्ष, लघु-वनस्पति, कहीं भीड़-भाड़ व निर्जन

कहीं भीषण-अरण्य जीव-प्रभुत्व, प्रकृति में हिल-मिल।

मनुज भी न्यूनाधिक उन सा ही, कहीं चरम सभ्यता-स्तर

कहीं दरिद्रता-वैभव, सब निज ढ़ंग से कर रहे हैं बसर॥

 

कहीं बुद्धिमता या तो मूर्खता, बहुजन यहाँ हैं सामान्य ही

कहीं शिक्षा या अपढ़ता, भिन्न मात्रा में ज्ञान-रश्मि फैली।

कहीं खुशी, दुःख-कहर, नर स्व-उपक्रमों में ही हैं व्यस्त

समस्त जीते हैं निज ढ़ंग से, अनंत विस्तृतता लिए अंतः॥

 

कहीं अंतरिक्ष चंदा-तारें-उल्का, या धूमकेतु ही घूम रहें

कहीं ग्रह-उपग्रह-नक्षत्र, ब्रहांड गुह्य असीमता लिए हुए।

उनको देखते रहने में ही, हम अनेक जन्म बिता हैं सकते

फिर नव यन्त्र-उपकरण प्रचलन से, दूर-दृष्टि किए हुए॥

 

अपने रंग ही कौन से कम, क्षण-क्षण हम नवीन हो जाते

चाहे हम अनुभव करें या न, पर परिवर्तन आमूल हुए हैं।

बदलते सदा भिन्न रूपों में, वृहद प्रकृति का मात्र हिस्सा

फिर हम परस्पर को बनाते, सब पदार्थ का प्रयोग हुआ॥

 

मैं देखूँ और विस्मित होऊँ, इतनी विचित्रता है भरी पड़ी

देखना-बखान करना अति जटिल, फिर भी यह सत्य ही।

क्यों न होवें हम समृद्ध यहाँ, फैला हुआ जब इतना कुछ

असली मालिक तो कुदरत, नर मुद्रित है बस कुछ क्षण॥

 

करें बखान विपुल विचित्रता का, भाव-वाणी-कलम द्वारा

बुद्धि में अनुभव हों कुछ राग-विराग, संगीत-सन्नाटे का।

फिर इस विस्तृतता में हो संगी, मेरी तो अटूट-इच्छा यही

 मैं सबका और सब मेरे हैं, यही समझने का प्रयास जारी॥



पवन कुमार, 
26 जून, 2014 समय 15:19 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 24 अप्रैल, 2014 समय 9:15 बजे प्रातः से ) 

Thursday, 19 June 2014

एक प्रार्थना

एक प्रार्थना 


नज़दीकियाँ खुद से हों, बड़े सुकून की बात

बढ़ें और करीबियाँ, यही असली है सौगात॥

 

विषय के परिवर्तन का कुछ हुनर तो सीखो

मधुर सोचने-कहने-सुनने का विवेक रखो।

न चलो यूँ विभ्रमित सम, जीवन बिताते हुए

ठीक से ज़रा क्या करना है, समझ तो लो॥

 

मुस्कुराने की आदत बने, सबको सुकून हो

कुछ उपकार करने की, चेष्टा तो फिर करो।

माना निठल्लों को, मुफ्त खिलाना न हो मंशा

सुबुद्धि से सबको श्रेष्ठता की, हो जाए प्रेरणा॥

 

भले ही हम असक्षम, दूसरों को समझाने में

पर कुछ मूढ़ों को तो, चेतन में बदल सकते।

चाहे बहुतों का न होता हो, बड़ा काया-कल्प

लेकिन कुछ को तो, कर ही सकते हैं बेहतर॥

 

यह कैसा निर्मल रूपांतरण होना है, प्रभु मेरे

वह मृदुल-चरित्र मुझे, समझाओ प्रवीणता से।

कुछ आध्यात्मिकता, बौद्धिक-स्पंदन हो जाए

मन-बुद्धि की स्वच्छता-सम्पन्नता, बढ़ा दो रे॥

 

ओ मौला, मेरी प्रवृत्तियों को उचित दिशा दे

और कुछ योग्य से योग्यतर स्तर बढ़ा दो रे।

मैं भी वैतरणी तर जाऊँ, उँगली पकड़ते ये

व नर का एक सच्चा मीत-गीत, बना दो रे॥

 

मेरी काष्टाओं को बढ़ा दे, ऐ जगत-मालिक

तन-लदा बोझ हटा ही दीजिए अनावश्यक।

कीमत इस मन की तू ही, बढ़ा सकता बस

अतः प्रार्थना है, जो भी उचित दीजिए कर॥

धन्यवाद, शुभ रात्रि। 


पवन कुमार, 
19 जून, 2014 समय 23:31 रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 17 फरवरी, 2011 समय 12:20 म० रा० )



सक्रिय रात्रि

सक्रिय रात्रि 


आज फिर लेखनी उठाई, कुछ बतियाने के लिए

ऐसे ही उनींदे पलों में, अकसर करता हूँ जिनमें॥

 

गहन मध्य-रात्रि है, और सभी लोग निद्रा में मग्न

जगत सुसुप्त, मैं अवचेतन, निस्बद्धता है सर्वत्र।

पूर्णिमा के बाद का चाँद, अनुपम छटा है बिखेरे

जिससे धूमिल हुए सितारें, कहीं छुप से गए हैं॥

 

पर यह विभावरी भी तो, नितांत खामोश नहीं है

जो दिन में दर्शित-अनुभूत न, रात में सक्रिय हैं।

खगोल में, चंदा-तारें अप्रतिम सुंदरता बिखेरे हैं

बस देखने वाले और उनका संकल्प वाँछित है॥

 

रात्रि के जीव-जंतु, कीट-पक्षी पूर्णतया सक्रिय हैं

दीवार-घड़ी की टिक-टिक, स्पष्ट सुनाई देती है।

मस्तिष्क का निद्रा-प्रभाग, निज कार्य हेतु उतारू

पर मन कहता कुछ करूँ, व्यर्थ समय न गँवाऊँ॥

 

शायद अतएव कुछ पठन-मनन का प्रयास करता

यथासंभव बहु जान सकूँ, समुचित प्रयत्न हूँ करता।

किंतु जीवन-प्रतिबद्धताओं का अपना ही महत्त्व है

व निश्चय ही निज हेतु, समय-ऊर्जा माँग करती हैं॥

 

आजकल पढ़ रहा ख़लील ज़िब्रान, लियो टॉलस्टॉय

सर्वपल्ली राधाकृष्णन, रमन महर्षि, चार्ल्स डिकेन्स।

विज्ञान में है, कार्ल सागन का 'ब्रोकास माइंड' और

आईसक एसिमोव का 'न्यू गाइड टू साइंस' आदि॥

 

लेकिन विषय इतने महद, कि माँगते बहुत समय

किंतु जितना है मुझसे हस्त-संभव, करता हूँ यत्न।

विद्वान तो नहीं बन पाया, पर शायद राह में कदम

फिर ज्ञानार्जन ही, दुनिया का सबसे बड़ा है धर्म॥



पवन कुमार,
19 जून, 2014 समय 00: 09 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 13 मार्च, 1998 समय रा० 1:50 से ) 




  

Wednesday, 18 June 2014

रुदन

रुदन


तुझे शायद रुलाने में मज़ा आए, बहुत सताए-घुमाए

बड़ा मज़बूत, जो कमजोरों पर ही घना बल आजमाए

किंतु कैसा निर्दयी, पहले से ही गिरों को और गिराए॥

 

हम तेरी सत्ता-वासी हैं, तू जैसे चाहे वैसे नाच नचाए

हम तो दुःख-भागी, तू अपना लीला-चरित्र है दर्शाए।

तेरी कृपा सुनी होती सब पर, पर कैसे यकीं ही आए

मुझ पर बीती मैं ही जानूँ, पर तूने कैसे बाण चलाए॥

 

मन तड़पन का है समय, तू फिर आग दूनी भड़काए

तेरी कोशिशों का आशी था, पर तू निज रोष दिखाए।

मेरी खताऐं अनेकों होंगी, पर तू तीर कहीं ओर चलाए

मेरी जान तो अति-पवित्र, उस पर क्यूँ तू दाँव चलाए॥

 

उसका रुदन न सह शक्य, बतला दे क्या जतन लगाए

तुझसे लड़ाई है तुझसे शिकवा, कैसे-कैसे वार चलाए?

 बहुत कठोर है तू ओ बेदर्दी, कुछ भी तो दया नहीं आए

 क्यूँ बन गया है ऐसा तू, जब दुनिया तुझसे आस लगाए॥

 

सुना बहुत कृपा का भरोसा, पर कहीं तो नज़र न आए

मैं तो हूँ पागल सा झोंका, जहाँ तेरी मर्ज़ी वहीं भगाए।

किन दिनों का बदला यह, मुझ पर कैसे ज़ुल्म हैं ढ़ाए

भाई बन जा मित्र तू, निकट आकर नैया पार लगाए॥

 

किस पर करूँ विश्वास, जब बाड़ ही तो खेत को खाए

जहाँ देखूँ वहीं निराशा, प्रकाश-किरण नज़र न आए।

मेरी दुनिया समझने वाले, तेरी दया-असर जो है पाए

 उसकी किस्मत अच्छी, जिसपर नज़रे-इनायत घुमाए॥

 

कहना क्या व रोना क्या, जब दुनिया में रोते हुए आए

 बहुत दुखी रे मन मोरा, आकर इसको कुछ समझाए।

कैसे करूँ यकीं रहमत का, कोई सबूत नज़र न आए

 दुनिया बोले तू दयालु, पर मुझे तो कोई यकीं न आए॥

 

बन्दापरवर तू बहुत सच्चा, छोटो-बड़ों में अंतर न पाए

क्यूँ जुर्म ही व अन्याय, जिसका समय वो क्यों न आए?

मेरा कौन सा अपराध, क्या काम मैंने करके न दिखाए

मेरी नौकरी जरूरी रोजी-रोटी, क्या कोई कसर ठाए॥

 

क्या हूँ फिर बहुत निकम्मा, मुझ पर फिर डाँट लगाए

बहुत तो न तगड़ा हूँ, तू क्यूँ मुझको बार-बार पटकाए?

इस धरती से उस अंबर तक, मुझको तेरा छोर ना पाए

 छुपकर तेरा वार देखा, बहुत महीन तक वह घुस जाए॥

 

बड़ी विकट घड़ी मेरी, इसपर फिर नमक-मिर्च लगाए

कर सहायता बन मीत, हर विपदा-हल तू ही सुलझाए।

रोऊँ, हँसू व शिकायत करूँ, किसको तेरे बिन बतलाए

 भावुक न तो होना चाहता, फिर क्यूँ न ढ़ाढ़स ही बँधाए॥

 

दुनिया का शायद दस्तूर यही, रोते हुए को और रुलाए

पर शक्ति न पाता, फिर बता हम कैसे ये गम तो खाए?

उसको कर दे जल्द अच्छा, मेरी तो फिर भी देखी जाए

कर दे माफ़ खता भई, यदि कुछ फिर ऐसा कर पाए॥

 

दे सुधरने का ही मौका, हम इसको शायद व्यर्थ गँवाए

भूलों से सुना मिले सबक, कैसे बता फिर मन समझाए?

तू तो दिखा दे शीशा मेरा, ताकि समझ खुद को भी पाए

सम्मान दें व बदले में पाए, ऐसे ही न व्यर्थ जन्म गँवाए॥

 

क्या अपेक्षित है मुझसे ओ मौला, तू मेरे कर्त्तव्य समझाए

मैं तो एक भूला-भटका राही, ठोकर खाता गिरता जाए।

बहुत घायल हैं घुटनें मेरे, चलने की बड़ी ताकत न पाए

फिर क्यूँ न एक संबल मिलता, आकर मुझे गले लगाए॥

 

दुनिया की सुनी कथा, जैसी कूकें गूँज वैसी वापस आए

तो मैं शायद बहुत बुरा, वरना ज़ुल्म क्यों फिर ऐसे ढ़ाए?

किसका रुदन यह इतना दारुण, दिल में ये घाव लगाए

रोता व यह कहता, आकर कोई मुझको मरहम लगाए॥

 

तेरी मंशा मैं नहीं समझ पाता, क्या-२ तू ये सितम हैं ढ़ाए

पर इतना तो तय हूँ पाता, नीयत तेरी साफ़ नज़र न आए।

क्यूँ न करूँ शिकायत ही, क्या तुझ पर कुछ हक़ न पाए

मेरा अपना ही साथी है रे तू, फिर कैसा यह बदला लाए॥

 

सोचा था मैंने तुझे बहुत ढूँढ़ा, जीवन में यूँ चिन्तन कराए

मैं तो करता तेरी इबादत, तुझमें ही फिर समय बिताए।

रात के बारह बजते जाते, फिर भी न कोई ढ़ाढ़स बँधाए

क्यूँ शिकायत ओ मौला, मुझको तो कुछ समझ न आए॥

 

कैसे करूँ मैं समाप्त गाथा, सिर-पैर तो नज़र नहीं आए

क्या यूँ ही बड़बड़ाऊँ, वहाँ उषा को बुखार है तड़पाए।

मेरी छोटी बिटिया रानी, उससे भी कोई बात न हो पाए

उसकी ही मैं चिंता करता, वरना बचा क्या जो तड़पाए॥

 

ओ मेरे मौला बन जा साथी, तू सहारा देकर मुझे उठाए

खुद को पाता विवश सा, अपना सहारा नज़र ना आए।

घोर निराशा में तू एक साथी, बोल आस-वचन जो चाहे

उनसे शायद कुछ भला, क्यूँ कि मरहम उनमें ही पाए॥

 

हाथ पकड़ के उठा मुझे, कह दे खुश फिर दिन हैं आए

उषा वहाँ होगी खुश फिर, वह तो बहुत आस ही लगाए।

छोड़ निराशा तू मेरी जानूँ, अपना ध्यान कर मेरे ही लाए

इतनी दूर हम हैं रे बैठे, कैसे मन को फिर लाड़ लड़ाए॥

 

जगा-जगा कर मन मेरा ही, विव्हळता मुझको है तड़पाए

तब दुनियादारी ऐसी, किसी को खुश देख कभी न हर्षाए।

कैसे करूँ गुज़र अपना, ठीक राह तो कोई नज़र न आए

 पर विपद पड़ी तो पथ भी होगा, हर मर्ज़ की दवा है पाए॥

 

फिर तू तो वैद्यों का वैद्यक भी, तुझसे कोई क्या छुप पाए

यह दर्द भी तेरा दवा भी तेरी, मैं तो हूँ तेरा भक्त लुभाय।

फिर चाहे दे जो मर्ज़ी, दवा के नाम से चाहे ज़हर पिलाए

जीवन तो तेरा ही तोहफ़ा मौला, जैसा चाहे वैसा नचाए॥

 

तुझमें फिर ध्यान हूँ लगाता, अपना करम तू करता जाए

जो तुम्हें लगे पात्र हूँ उपयुक्त, तो थोड़ी और कृपा दौड़ाए

धन्यवाद प्रभु, जिसमें रोते हुए भी सब जन आस लगाए॥


पवन कुमार,
18 जून, 2014 समय 00:10 म० रा  
( मेरी डायरी दि० 4 अक्तुबर, 2001 समय 12:15 म० रा०)  

Tuesday, 17 June 2014

अन्वेषी -राह

अन्वेषी -राह


क्यूँ हम एक विचक्षण मानव को बना देते हैं देव-चरित्र ही

जब उसने तो इस हेतु कभी इच्छा-अभिव्यक्ति ही न की॥

 

एक असहज-अबूझ, भ्रांत-अप्रकाशित नर है सामान्य अति

यदि उसे निज सत्य-स्थिति का बोध हो जाए, तो उचित ही।

हर एक की स्व-विसंगतियाँ दूर करने की है जिम्मेवारी भी

यदि श्रम कर कुछ सुभीता समझ ले, उसको साधुवाद ही॥

 

क्या मनुष्य में हैं कुछ देव-तत्व, व कैसे उनकी प्राप्ति संभव

क्या उसकी खोजें फिर कोई बड़ा साम्राज्य, जीतने को लब्ध।

किंतु वह तो स्वयं में ही इतना निमग्न है, कि चेतना ही न उसे

 फिर यदि एक उत्तम इंसान भी बन जाए, तो भी उपलब्धि है॥

 

क्यूँ वह खो जाता खुद में, व त्यजना चाहता सब जग-प्रलोभन

और वह सिद्धार्थ, महावीर, भर्तृहरि की भाँति पड़ता है निकल।

उसे तमाम जगत-रस लोलुप करने, रोकने में विफल ही होते

 चूँकि उसे अपनी प्रतिबद्धता का ज्ञान और वह एकाग्र-चक्षु है॥

 

हम बहुत ही सामान्य हैं, और कुछ इससे आगे बढ़ना चाहते

उन्हें इस जग-अनित्यता से करुणा तो है, पर उद्वेलित न होते।

बहु-व्यसन जग को मोहते, व लिप्त करते वासनाओं में अनेक

 फिर काम-क्रोध-मद-मोह-मत्सर-लोभ-ईर्ष्या-घृणा के प्रभाव॥

 

हम फँस जाते निज चक्र-व्यूह में, कोई निकास-द्वार न चिन्हित

स्व-स्थिति में कभी खुश, कभी फाँदकर निर्गम का होता मन।

किंतु सब मन-शक्ति भी हमें, एक अति-सामान्य रखती बनाए

 और समस्त विश्व-रसायन, हमें बालपन से आगे न देते हैं बढ़ने॥

 

संसार के दुःख हमें बुरा फँसाते, तमाम व्याधियों से त्रस्त करते

हम टीसते तो हैं बहुत, पर प्रबुद्धता और निवारण नहीं मिलते।

फिर छटपटाते हैं बाहर निकलने को, पर बहुत अवरोध समक्ष

 प्रपंच-निर्गम को नितांत अक्षीण, फिर भाग्य को दोष देते ढ़ीठ॥

 

कुछ हममें से तथाकथित सफल होते, और भाग्य पर इठलाते

वे भी कुसमय पकड़े जाते, तब सत्य जीवन-रस अनुभव करते।

'नानक दुखिया सब संसार', उक्ति तब उनको भी आती स्मरण

आइंस्टीन-'सापेक्षता सिद्धांत' भी, `लघु कष्ट-क्षण भी महाकंटक सम'

 

पर स्वयं पर हुए अनुभव भूल जाते, जब अन्यों से हो व्यवहार

और कभी भी मन पर न दबाव देते, क्या उचित है या विकार?

बस चलते रहते शील-विहीन ही, व्यर्थ-अभिमान में पूर्व-ग्रसित

तनिक से अल्प बुद्धि-बल-ऐश्वर्य-विद्यावानों को समझते तुच्छ॥

 

कितना निम्न उपयोग उस परम शक्ति का, जो हममें विद्यमान

और किञ्चित भी नर को, अपनी कुस्थिति पर आती है लज्जा न।

सब तरह के पाप-व्याभिचार-बलात्कार व आचरण अशोभनीय

सामान्य क्या फिर तथाकथित सभ्य-शैली में भी होते हैं चित्रित॥

 

फिर क्यूँ न उद्यत हों कुछ निर्मल मन, मुक्ति पाने को दुर्गति से

और फिर करें प्रयास निकलने को, अपनी ही रचित फाँसों से।

फिर सुयत्न, मनन व अभ्यास से ही, कुछ निर्गम उपाय पा जाते

और कुचक्रों से निकल, कुछ निज जैसे मूढ़ों को मार्ग बता देते॥

 

पर अनुसंधान-अन्वेषण भी पूरा न ज्ञात, जानते हैं वे भली-भाँति

उन्होंने कुछ पा भी लिया है तो इसका, अर्थ न वे परम-विजयी।

वे तो अंधकार से निकलकर, कुछ ही रोशनी में आए हुए लगते

पर 'बहुत कठिन है डगर पनघट की', मंज़िल अभी अति दूर है॥

 

मैं नहीं मानता कि कहीं पूर्ण-विराम है, ऐसा मनीषी भी हैं कहते

फिर पूर्ण-चिंतन में भी हम, पूर्णता का रत्ती भर समझ न सकते।

तब कहाँ है परम -ज्ञान का वरणीय पथ, व श्रेष्ठ अकाट्य अनुभव

जिससे कुछ चपल-संघ बना लिए गए, कि ये हीं अनुपम-साध्य॥

 

एक आदर-अभिव्यक्ति अपने से श्रेष्ठों हेतु है, उत्तम पुरुष-भाव

पर क्या हम भी अन्वेषी या भाट सम, मात्र व्यस्त हैं स्तुति-गान?

कितने भाव समझकर हमने, स्व से बाहर आने का किया यत्न

फिर क्या संसार के हर जन का कुछ स्तर उठाने में हुए सक्षम?

 

निश्चितेव भावों के बहुत निकट न जा पाया, प्रयास हो पुनः भी॥



पवन कुमार, 
17 जून, 2014 समय 00:47 म० रा० 
( मेरी डायरी दि० 10 जून, 2014 समय 10 बजे प्रातः )