मंज़िल
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मस्तिष्क कुछ भारी है लेकिन आंदोलन जारी है
जीवन की सार्थकता के लिए, मेहनत ये सारी है।
व्यस्त तो फिर भी रहता ही हूँ
चाहे कुछ परिणाम न निकले।
क्योंकि जीवन तो सिर्फ़ चलना ही है
चाहे प्राण ही क्यों न निकले।
गर्मी की बेहाली में एक-एक क्षण बीता है
ऊपर से बिजली का गुल होना, जान को सुखाता है।
लेकिन बाधाएें तो होती ही हैं अपना काम करने को
हमें तो बस मंजिल ही नज़र आती है।
पर 'मंज़िल' क्या है प्रश्न यही बड़ा विशाल है
उसी के लिए तो जीवन का ये हाल है।
पवन कुमार,
4 अप्रैल, 2014 समय 00:13 म० रा०
(मेरी डायरी दि० 8 जुलाई, 1998 से )
एक सहज अभिव्यक्ति आसान नहीं होती , बधाई आपको !
ReplyDeleteसतीश जी , आपके प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन लिए आभारी हूँ।
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