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Wednesday 9 April 2014

मेरा बदलाव

मेरा बदलाव 
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मैं बना नाना प्रकार का निज-जीवन प्रवाह में 
इसी जीवन में अनेक रूप देख लिए स्वयं के। 

मेरा निज रहा बदलता नित्य स्व से, जग से 
हर पल मरता रहा, लेता रहा स्वरुप दूजे। 
नहीं समझ पाया यह आत्म-अवतरण बारम्बार 
सिलसिला ऐसा चला व बिना अवरोध चलता रहा। 

क्या है ऐसा जो मुझे बदलता बिना मुझसे पूछे भी  
क्यों करता ऐसे जबकि बदलाव हेतु मैं तैयार भी नहीं। 
क्या यही है जीवन - निरंतरता अथवा इसका अपक्षय 
मेरा वजूद फिर क्या या मैं घटनाओं का हूँ मात्र पात्र। 

कितने ही बिखराव स्वयं के होते हुए मैं देखता रहा 
निमग्न, संज्ञाशून्य, हतप्रद व कदाचित हास्यस्पद भी। 
मैं कपास के रेशे ज्यूँ हवा में इधर-उधर उड़ता रहा, 
असहाय होकर अपने भाग्य का मैं मनन रहा करता। 

कितनों का स्थायी  बिछुड़ना, अन्यों का मिलना आके 
बिना बताए ये सब होता रहता, हमारे होते या न होते। 
कितने सखा संग के थे, अब बहुत वक्त हो जाता देखे 
कितनों को तो मन से और जीवन से निकाल चुके हैं। 

आज न हमको उनमें रूचि है और उनको हममें ही 
कुछ समय के हमसफ़र थे आज नाम भी याद नहीं। 
कैसी रीत यह जग की  है, हम अपने से ही कटते हैं 
कुछ नए जुड़ाव भी होते, पर शायद हटने के ही लिए। 

मन जो निज देह में है, वह भी रंग बदलता रहता है 
निरंतर चलायमान रहता बिना हमारी अनुशंसा के। 
स्वयं ही वह निर्णय करता क्या अच्छा-बुरा उसके हेतु 
मूक, बधिर बने देखते रहते अपने को, कभी मन को। 

सोच भी निरंतर बदलती रहती उत्तम हेतु ही कभी तो 
पर बहुत समय तो ज्ञात ही न, शायद अपघट रहें हो। 
हम  तो उस परम - चंचलता के बहुत खिलौने हैं
और मोहरा बनते उसकी चालों का, खेलों का हैं । 

बचपन बीता, उसमें भी क्या रंगों की ही थी अल्पता 
गर्भ के साथ ही आ गई नए विकास की निरंतरता। 
देह बढ़ी, अंग बनें, ज्ञानेन्द्रियों संग बाह्य-निर्गम को उद्यत 
माता को प्रसन्न किया व कभी तो किया बहुत उद्वेलित। 

बाहर आकर अपने रूप से बहुतों को प्रसन्न किया 
कभी तो अपने रुदन से सबका जीना दूभर किया। 
पारिवारिक स्थिति में रोज अवश्यंभावी है कुछ नव 
जन्म, अचानक मृत्यु, सुख-दुःख का सिलसिला हुआ। 

मैं आँख फाड़े देखता रहा, क्यूँ हो रहा है यह सब 
कलह, शोक, खुशी, उद्यमता व अन्य भी विषाद। 
मैं बदलता रहा देखकर वह सब नाना व्यवहार 
स्व को तैयार करता रहा हेतु अनेक अन्य प्रकार। 

पूर्व मात्र गोद में या खाट पर, घुटनों के बल रेंगता चला 
शनै-2 खड़ा हुआ, तथापि यदा -कदा पूर्व रूप में आता। 
दाँत आऐं, शरीर बढ़ा, चलना शुरू हुआ और आऐ भाव  
पुराना तो मेरा कुछ तो मर गया और नए में प्रवेश हुआ। 

और बढ़ा, जिम्मेवारी आई व ली अपनी तख्ती-किताब 
शिक्षिकाओं का साथ हुआ और विद्यालय की ली राह। 
बुद्धिमता से हुआ परिचय और अनपढ़ मैं मर ही गया 
पर विस्तृतता के साम्राज्य में, महज बस प्रवेश हुआ। 

घर से निकले, पड़ोस में आये, गली-गाँव से हुआ सम्पर्क 
वह भी अति-सीमित, अनेक नाम तो आज तक अज्ञात। 
परन्तु बदलता रहा, सभी के मिश्रित प्रभावों से मुझ पर 
सदा सोचता ही रहता कि यह सब क्या, क्यों हो रह ? 

कुछ बुद्धि स्वयं में आई, निरंतर परिवर्तन होते रहें पर 
मेरे करने से होगा या न होगा, मैं सोचता ही रहा यह। 
कुछ निर्णय लेने में हुआ सक्षम, पर जग तो विशाल-अति 
और जीवन अपने हिसाब से बढ़ता गया दिशा में अपनी। 

कुछ बड़ा हुआ, पता चला, अनित्य संसार यह कितना 
कितने समारोह-आयोजन, कितनी इच्छा व अनिच्छा। 
कोई एक बंधन में कोई अन्य में, मुक्ति हेतु छटपटाहट 
किस किसकी फिर बात करे, सब स्वयं  में थे पूर्ण-मग्न। 

फिर मेरी जीवन्तता का क्या हुआ, मर कर जीते सदा रहें 
आज यह प्रयास, कल दूसरा, बस समझाते रहें ऊपर से। 
 मेरे मन के दृढ़ भाव का कोई अस्तित्व नहीं है इस जग में 
 जो कुछ कर्म-कृत, उस विशाल उपकरण-चलन के लिए। 

मित्र बने और मित्र बिछुड़े, शत्रु बनें और बहुत भी हटें 
बहुतों से न कोई सम्पर्क, आज बहुत निरपेक्ष भाव है। 
मन की असीमिताओं पर ये घटनाएँ प्रभाव डाल रहीं 
वह भी अकेला कितना चले, किसी का साथ भी नहीं। 

हर रोज के संघर्ष मे बदलने पड़ते ही हैं नित रूप 
सर्व-प्रतिबद्धताओं के बावजूद, है चलायमान अनवरत। 

धन्यवाद। पूर्ण भाव से नहीं कह सका, फिर कभी। 

पवन कुमार,
9 अप्रैल, 2014 समय 12:01 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 28 मार्च, 2014 समय 12:35 म० रा०  से )  

1 comment:

  1. जीवन की जटिलता का विवरण देना आसान तो नहीं :) , मंगलकामनाएं आपकी लेखनी को !!

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